भारत में मंदिर वास्तुकला का परिचय
भारत में मंदिर वास्तुकला एक आकर्षक विषय है जो देश की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाता है। यह अध्याय भारत में मंदिर वास्तुकला के विकास का अवलोकन प्रदान करता है, जिसमें विभिन्न राजवंशों और क्षेत्रों के प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है। यह गर्भगृह, मंडप, शिखर और वाहन सहित हिंदू मंदिरों के बुनियादी घटकों की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है।
मंदिर वास्तुकला का विकास
भारत में मंदिर वास्तुकला का विकास विविधता और निरंतरता की कहानी है। सदियों से, मंदिर डिजाइन उपमहाद्वीप में बदलते राजवंशों और क्षेत्रों के अनुरूप विकसित हुआ है। प्रत्येक राजवंश ने अपनी कलात्मक दृष्टि लाई, जिससे वास्तुकला की कई शैलियाँ विकसित हुईं।
राजवंशों का प्रभाव
- मौर्य राजवंश (322-185 ईसा पूर्व): मौर्य काल में मंदिर वास्तुकला के शुरुआती उदाहरण देखने को मिले, जिसमें धार्मिक उद्देश्यों के लिए चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाएं भी शामिल थीं।
- गुप्त राजवंश (लगभग 320-550 ई.): जिसे अक्सर भारत का स्वर्ण युग कहा जाता है, गुप्त काल में अधिक परिष्कृत मंदिर संरचनाओं का विकास हुआ, जैसे देवगढ़ में दशावतार मंदिर।
- पल्लव और चोल (6वीं से 13वीं शताब्दी): इन राजवंशों ने दक्षिण भारत में द्रविड़ शैली के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- चालुक्य और राष्ट्रकूट (6ठी से 12वीं शताब्दी): ये राजवंश वेसर शैली के विकास में सहायक थे, जो नागर और द्रविड़ तत्वों का मिश्रण था।
क्षेत्रों का प्रभाव
- उत्तरी भारत: नागर शैली, जो अपने वक्ररेखीय शिखरों के कारण प्रसिद्ध थी, प्रमुख थी।
- दक्षिणी भारत: पिरामिडनुमा शिखर और गोपुरम वाली द्रविड़ शैली अधिक प्रचलित थी।
- पश्चिमी और मध्य भारत: गुजरात और मध्य प्रदेश जैसे क्षेत्रों में नागर शैली का अनूठा रूप देखने को मिला।
हिंदू मंदिरों के मूल घटक
किसी हिंदू मंदिर के मूल घटकों को समझना उसके वास्तुशिल्प और आध्यात्मिक महत्व को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
गर्भगृह
गर्भगृह, या "गर्भ कक्ष", हिंदू मंदिर का सबसे पवित्र हिस्सा है। इसमें मुख्य देवता की छवि या मूर्ति होती है और यह आमतौर पर एक सादा, अलंकृत कक्ष होता है, जो इसके आध्यात्मिक महत्व को दर्शाता है।
- उदाहरण: तमिलनाडु के बृहदेश्वर मंदिर का गर्भगृह इसका उत्कृष्ट उदाहरण है, जिसमें विशाल शिव लिंगम स्थापित है।
मंडप
मंडप एक स्तंभयुक्त हॉल है जो सभा और अनुष्ठानों के लिए स्थान के रूप में कार्य करता है। यह अक्सर गर्भगृह से पहले होता है और नक्काशी और मूर्तियों से विस्तृत रूप से सजाया जा सकता है।
- उदाहरण: गुजरात के मोढेरा स्थित सूर्य मंदिर के मंडप अपनी जटिल नक्काशी और खुले डिजाइन के लिए प्रसिद्ध हैं।
शिखर
शिखर गर्भगृह के ऊपर स्थित शिखर या मीनार है। नागर शैली में यह आम तौर पर वक्रीय होता है, जबकि द्रविड़ शैली में यह पिरामिडनुमा होता है।
- उदाहरण: खजुराहो में कंदरिया महादेव मंदिर का वक्रीय शिखर अपनी सुंदर डिजाइन के लिए प्रसिद्ध है।
वहां
मंदिर के सामने अक्सर देवता के वाहन को दर्शाया जाता है। यह आमतौर पर किसी पशु या पक्षी की मूर्ति या छवि होती है।
- उदाहरण: नंदी, बैल, भगवान शिव का वाहन है और आमतौर पर शिव मंदिरों के सामने पाया जाता है।
मंदिर वास्तुकला के उदाहरण
- खजुराहो मंदिर (10वीं-11वीं शताब्दी): ये नागर शैली के मंदिर अपनी जटिल मूर्तियों और नक्काशी के लिए जाने जाते हैं।
- बृहदेश्वर मंदिर (1010 ई. में पूरा हुआ): चोल वंश द्वारा निर्मित द्रविड़ वास्तुकला का एक प्रतिष्ठित उदाहरण।
- सूर्य मंदिर, कोणार्क (13वीं शताब्दी): कलिंग वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना, जो सूर्य देवता के रथ का प्रतिनिधित्व करता है।
प्रमुख लोग, स्थान और घटनाएँ
राजा अशोक (304-232 ईसा पूर्व)
अशोक ने भारत और उसके बाहर बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके फलस्वरूप बौद्ध स्तूपों और मठ परिसरों का विकास हुआ, जिसने मंदिर वास्तुकला को प्रभावित किया।
पल्लव (तीसरी से नौवीं शताब्दी)
द्रविड़ वास्तुकला के विकास में पल्लवों का महत्वपूर्ण योगदान था, महाबलीपुरम का शोर मंदिर इसका प्रमुख उदाहरण है।
चोल (9वीं से 13वीं शताब्दी)
चोल राजवंश अपने स्मारकीय मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है, जिनमें बृहदेश्वर मंदिर भी शामिल है, जो यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है।
राष्ट्रकूट (8वीं से 10वीं शताब्दी)
राष्ट्रकूटों ने एलोरा के चट्टान-काटे गए मंदिरों के साथ एक स्थायी विरासत छोड़ी, जो उनकी स्थापत्य कला का प्रदर्शन करती है। यह अध्याय भारतीय मंदिर वास्तुकला में विविध शैलियों और क्षेत्रीय विविधताओं को समझने के लिए मंच तैयार करता है, जिसे बाद के अध्यायों में खोजा जाएगा।
मंदिर वास्तुकला की नागर शैली
मंदिर वास्तुकला की नागर शैली भारत में तीन अलग-अलग मंदिर शैलियों में से एक है, जो मुख्य रूप से देश के उत्तरी भाग में देखी जाती है। इसकी विशेषता इसकी अनूठी विशेषताओं और क्षेत्रीय अनुकूलन हैं, जो इसे भारतीय मंदिर वास्तुकला में अध्ययन का एक महत्वपूर्ण विषय बनाते हैं। यह अध्याय नागर शैली के विभिन्न पहलुओं, इसके विकास, क्षेत्रीय विविधताओं और उल्लेखनीय उदाहरणों पर प्रकाश डालता है।
विशिष्ट विशेषताएं
वक्ररेखीय शिखर
नागर शैली की सबसे खास विशेषता वक्रीय शिखर या शिखर है, जो गर्भगृह या गर्भगृह से ऊपर की ओर खड़ा होता है। यह मीनार अक्सर जटिल नक्काशीदार होती है और कलश में समाप्त होती है, जो बहुतायत और उर्वरता का प्रतीक एक बर्तन जैसी संरचना है। शिखर को आमतौर पर क्रमिक रूप से छोटे स्तरों की एक श्रृंखला में बनाया जाता है, जो एक शंक्वाकार आकार बनाता है।
- उदाहरण: मध्य प्रदेश के खजुराहो में स्थित कंदरिया महादेव मंदिर अपने भव्य वक्ररेखीय शिखर के लिए प्रसिद्ध है, जो विस्तृत मूर्तियों से सुसज्जित है।
पत्थर मंच
नागर मंदिर अक्सर एक ऊंचे पत्थर के मंच पर बनाए जाते हैं, जिसे जगती के नाम से जाना जाता है। यह मंच न केवल मंदिर की संरचना को ऊंचा करता है बल्कि इसकी भव्यता को भी बढ़ाता है। यह एक प्रदक्षिणा पथ या परिक्रमा पथ के रूप में कार्य करता है, जिससे भक्त अपनी पूजा के हिस्से के रूप में मंदिर के चारों ओर घूम सकते हैं।
- उदाहरण: गुजरात के मोढेरा में स्थित सूर्य मंदिर एक जटिल नक्काशीदार पत्थर के मंच पर स्थित है, जो इसकी स्थापत्य सुंदरता को बढ़ाता है।
मंदिर योजना
नागर मंदिर की विशिष्ट योजना में एक गर्भगृह, एक मंडप (स्तंभों वाला हॉल) और एक शिखर शामिल होता है। मंदिर के आकार और महत्व के आधार पर मंदिर परिसर में अतिरिक्त मंडप और छोटे मंदिर भी शामिल हो सकते हैं। लेआउट को अक्सर भक्तों के एकत्र होने और अनुष्ठानों के प्रदर्शन को सुविधाजनक बनाने के लिए डिज़ाइन किया जाता है।
- उदाहरण: ओडिशा के भुवनेश्वर में स्थित लिंगराज मंदिर अपने अनेक मंडपों और विशाल शिखरों के साथ शास्त्रीय नागर मंदिर योजना का उदाहरण है।
क्षेत्रीय विविधताएँ
खजुराहो के मंदिर
मध्य प्रदेश में स्थित खजुराहो अपने मंदिरों के समूह के लिए प्रसिद्ध है जो नागर वास्तुकला के शिखर का प्रतिनिधित्व करते हैं। चंदेल राजवंश द्वारा 950 और 1050 ई. के बीच निर्मित ये मंदिर अपनी जटिल मूर्तियों और कामुक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं।
- उदाहरण: लक्ष्मण मंदिर खजुराहो के प्रमुख मंदिरों में से एक है, जिसमें विस्तृत नक्काशी और आकर्षक शिखर प्रदर्शित हैं।
उड़ीसा (ओडिशा)
उड़ीसा के मंदिर, खास तौर पर भुवनेश्वर और कोणार्क के मंदिर, नागर वास्तुकला की एक अलग उप-शैली को दर्शाते हैं। ये मंदिर अपने ऊर्ध्वाधर जोर और विस्तृत अलंकरण के लिए जाने जाते हैं।
- उदाहरण: 13वीं शताब्दी में निर्मित कोणार्क का सूर्य मंदिर, कलिंग वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है, जो सूर्य देवता के रथ का प्रतिनिधित्व करता है।
गुजरात
गुजरात के मंदिरों में अक्सर विशिष्ट वास्तुशिल्प तत्व होते हैं जो नागर शैली के क्षेत्रीय अनुकूलन को दर्शाते हैं। ये मंदिर अपनी अलंकृत नक्काशी और अद्वितीय संरचनात्मक डिजाइनों के लिए जाने जाते हैं।
- उदाहरण: गुजरात के पश्चिमी तट पर स्थित सोमनाथ मंदिर अपने भव्य शिखर और ऐतिहासिक महत्व के कारण नागर शैली का एक प्रतिष्ठित उदाहरण है।
चंदेला राजवंश
चंदेल शासकों ने खजुराहो मंदिर परिसर के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 10वीं और 11वीं शताब्दी के दौरान उनके संरक्षण के कारण नागर वास्तुकला के कुछ सबसे उत्कृष्ट उदाहरण निर्मित हुए।
भुवनेश्वर
अक्सर "भारत के मंदिरों के शहर" के रूप में संदर्भित भुवनेश्वर में अनेक नागर शैली के मंदिर हैं, जिनमें लिंगराज मंदिर भी शामिल है, जिसका निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था।
मोढेरा सूर्य मंदिर
सोलंकी वंश के राजा भीम प्रथम द्वारा 1026 ई. में निर्मित मोढेरा सूर्य मंदिर गुजरात में नागर शैली का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह अपनी स्थापत्य कला की सटीकता और जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
वास्तुकला विशेषताएँ
नक्काशी और मूर्तियां
नागर मंदिरों की विशेषता उनकी विस्तृत नक्काशी और मूर्तियां हैं। ये कलात्मक तत्व अक्सर देवताओं, पौराणिक दृश्यों और पुष्प रूपांकनों को दर्शाते हैं, जो मंदिर के सौंदर्य और आध्यात्मिक आकर्षण को बढ़ाते हैं।
- उदाहरण: खजुराहो के विश्वनाथ मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी अपनी कलात्मक उत्कृष्टता और जटिलता के लिए प्रसिद्ध है।
मंडप
नागर मंदिरों में मंडप एक प्रमुख तत्व है, जो सामूहिक गतिविधियों और अनुष्ठानों के लिए एक स्थान के रूप में कार्य करता है। इन स्तंभों वाले हॉलों को अक्सर नक्काशी और मूर्तियों से सजाया जाता है।
- उदाहरण: भुवनेश्वर स्थित मुक्तेश्वर मंदिर का मंडप अपने उत्कृष्ट तोरण (तोरणद्वार) और विस्तृत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
ऐतिहासिक प्रभाव
उत्तरी भारत
नागर शैली उत्तरी भारत में प्रचलित थी, जो इस क्षेत्र के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विकास से प्रभावित थी। यह शैली सदियों से विकसित हुई है, जो विभिन्न राजवंशों और क्षेत्रीय परंपराओं की कलात्मक दृष्टि को दर्शाती है।
विकास और प्रसार
नागर शैली गुप्त काल (चौथी से छठी शताब्दी ई.) के दौरान एक विशिष्ट स्थापत्य शैली के रूप में विकसित हुई तथा प्रतिहार, सोलंकी और चंदेल सहित बाद के राजवंशों के अधीन फलती-फूलती रही।
- घटना: गुप्त काल के दौरान नागर शैली के विकास ने भारतीय मंदिर वास्तुकला में एक महत्वपूर्ण बदलाव को चिह्नित किया, जिसने भविष्य के वास्तुशिल्प नवाचारों की नींव रखी। यह अध्याय मंदिर वास्तुकला की नागर शैली की व्यापक समझ प्रदान करता है, इसकी अनूठी विशेषताओं, क्षेत्रीय विविधताओं और ऐतिहासिक महत्व पर जोर देता है।
मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली
मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली मुख्य रूप से दक्षिण भारत में पाई जाने वाली एक प्रमुख वास्तुकला शैली है। इसकी विशेषता इसकी अनूठी विशेषताओं, भव्यता और विभिन्न राजवंशों के प्रभाव से है। यह शैली दक्षिण भारत की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का प्रमाण है।
पिरामिड शिखर
द्रविड़ मंदिरों में शिखर विशिष्ट रूप से पिरामिडनुमा होता है, नागर शैली के वक्रीय शिखर से अलग। यह सीढ़ीनुमा, पिरामिडनुमा संरचना अक्सर कई स्तरों वाली होती है और इसे विमान के नाम से जाना जाता है। शिखर एक गुंबदनुमा संरचना में समाप्त होता है जिसे स्तूप या कलश कहा जाता है।
- उदाहरण: तमिलनाडु के तंजावुर में चोल राजवंश द्वारा निर्मित बृहदेश्वर मंदिर एक अनुकरणीय मॉडल है, जिसका विशाल पिरामिड शिखर 66 मीटर ऊंचा है।
गोपुरम
द्रविड़ मंदिरों की सबसे खास विशेषताओं में से एक गोपुरम है, जो मंदिर परिसर के प्रवेश द्वार पर एक विशाल मीनार है। इन मीनारों को पौराणिक कहानियों, देवताओं और रूपांकनों को दर्शाती मूर्तियों से सजाया गया है।
- उदाहरण: तमिलनाडु के मदुरै में स्थित मीनाक्षी मंदिर अपने विशाल गोपुरम के लिए प्रसिद्ध है, जिनमें से प्रत्येक हजारों रंग-बिरंगी मूर्तियों से सुसज्जित है।
मंदिर की सीमाएं
द्रविड़ मंदिर अपनी विस्तृत मंदिर सीमाओं के लिए जाने जाते हैं, जो अक्सर ऊंची दीवारों से घिरी होती हैं। ये सीमाएं एक पवित्र स्थान बनाती हैं जो मंदिर परिसर को बाहरी दुनिया से अलग करती हैं, जो क्षेत्र की आध्यात्मिक पवित्रता का प्रतीक है।
- उदाहरण: तमिलनाडु के श्रीरंगम में स्थित रंगनाथस्वामी मंदिर, दुनिया का सबसे बड़ा कार्यरत हिन्दू मंदिर है और यह सात संकेन्द्रित दीवारों से घिरा हुआ है, जो मंदिर की सीमाओं के महत्व पर बल देता है।
महत्वपूर्ण राजवंश और योगदान
पल्लव
पल्लव, जिन्होंने तीसरी से नौवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया, द्रविड़ वास्तुकला के विकास में अग्रणी थे। उन्होंने चट्टान काटकर और संरचनात्मक मंदिर वास्तुकला की शुरुआत की, जिसके उल्लेखनीय उदाहरण महाबलीपुरम में पाए जाते हैं।
- उदाहरण: नरसिंहवर्मन द्वितीय के शासनकाल के दौरान निर्मित महाबलीपुरम का शोर मंदिर, यूनेस्को का विश्व धरोहर स्थल है और इसमें प्रारंभिक द्रविड़ स्थापत्य तत्वों का प्रदर्शन किया गया है।
चोल
9वीं से 13वीं शताब्दी तक शासन करने वाले चोल राजवंश ने द्रविड़ मंदिर वास्तुकला को अपने चरम पर पहुंचाया। उन्होंने विस्तृत मूर्तियों और विस्तृत प्रतिमा विज्ञान के साथ स्मारकीय मंदिरों का निर्माण किया।
- उदाहरण: तमिलनाडु के दारासुरम में स्थित ऐरावतेश्वर मंदिर चोल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है, जो अपनी जटिल पत्थर की नक्काशी और विस्तृत भित्तिचित्रों के लिए जाना जाता है।
अन्य राजवंश
पांड्य, होयसल और विजयनगर जैसे अन्य राजवंशों ने भी द्रविड़ शैली में महत्वपूर्ण योगदान दिया तथा इसमें अद्वितीय तत्व और नवीनताएं जोड़ीं।
- उदाहरण: कर्नाटक के हैलेबिडु में होयसल राजवंश द्वारा निर्मित होयसलेश्वर मंदिर अपनी जटिल नक्काशी और अद्वितीय तारा-आकार की योजना के लिए प्रसिद्ध है।
राजराजा चोल प्रथम (985-1014 ई.)
राजराजा चोल प्रथम ने तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो द्रविड़ वास्तुकला में एक मील का पत्थर है। उनके शासनकाल में महान वास्तुकला और सांस्कृतिक उपलब्धियों का दौर रहा।
श्रीरंगम
कावेरी नदी में स्थित श्रीरंगम द्वीप पर रंगनाथस्वामी मंदिर है, जो द्रविड़ वास्तुकला का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह मंदिर एक प्रमुख तीर्थ स्थल है और मंदिर की सीमाओं की भव्यता को दर्शाता है।
महाबलीपुरम
महाबलीपुरम, जिसे मामल्लपुरम के नाम से भी जाना जाता है, पल्लवों द्वारा निर्मित चट्टानों को काटकर बनाए गए संरचनात्मक मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इस स्थल में शोर मंदिर और पंच रथ शामिल हैं, जो प्रारंभिक द्रविड़ स्थापत्य शैली को दर्शाते हैं।
मूर्तियां और नक्काशी
द्रविड़ मंदिर जटिल मूर्तियों और नक्काशी से सुसज्जित हैं, जिनमें अक्सर देवताओं, पौराणिक कथाओं और पुष्प रूपांकनों को दर्शाया जाता है। ये कलात्मक तत्व मंदिर के सौंदर्य और आध्यात्मिक आकर्षण को बढ़ाते हैं।
- उदाहरण: मदुरै में मीनाक्षी मंदिर के खंभों पर की गई नक्काशी हिंदू पौराणिक कथाओं और सांस्कृतिक रूपांकनों के विस्तृत चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। मंडप या स्तंभों वाले हॉल द्रविड़ मंदिरों का अभिन्न अंग हैं, जो सामूहिक गतिविधियों और अनुष्ठानों के लिए स्थान के रूप में काम करते हैं। वे अक्सर विस्तृत रूप से सजाए जाते हैं और उनमें उप-मंदिर और अन्य संरचनाएं शामिल हो सकती हैं।
- उदाहरण: श्रीरंगम के रंगनाथस्वामी मंदिर में स्थित हजार स्तंभों वाला मंडप अपनी स्थापत्य कला की सुंदरता और जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
क्षेत्रीय प्रभाव
दक्षिण भारत
द्रविड़ शैली मुख्य रूप से दक्षिण भारत में पाई जाती है, खासकर तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल राज्यों में। यह शैली क्षेत्र के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विकास को दर्शाती है और आज भी मंदिर वास्तुकला को प्रभावित करती है। द्रविड़ शैली सदियों से विकसित हुई है, जिसमें प्रत्येक राजवंश ने इसके विकास और प्रसार में योगदान दिया है। शैली का विकास चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों से संरचनात्मक मंदिरों में परिवर्तन, बढ़े हुए पैमाने और जटिलता और जटिल मूर्तियों और चित्रों के समावेश द्वारा चिह्नित है।
- घटना: 11वीं शताब्दी की शुरुआत में बृहदेश्वर मंदिर के निर्माण ने द्रविड़ वास्तुकला में एक महत्वपूर्ण विकास को चिह्नित किया, जिसने पैमाने और भव्यता के लिए नए मानक स्थापित किए। यह अध्याय मंदिर वास्तुकला की द्रविड़ शैली की गहन खोज प्रदान करता है, इसकी विशिष्ट विशेषताओं, ऐतिहासिक विकास और विभिन्न राजवंशों के प्रभाव पर प्रकाश डालता है।
मंदिर वास्तुकला की वेसर शैली
मंदिर वास्तुकला की वेसर शैली नागर और द्रविड़ स्थापत्य शैली के एक अद्वितीय मिश्रण का प्रतिनिधित्व करती है। मुख्य रूप से दक्कन क्षेत्र में पाई जाने वाली यह शैली एक विशिष्ट स्थापत्य शैली के रूप में उभरी, जिसने भारत के उत्तरी और दक्षिणी दोनों हिस्सों से प्रभाव लिया। यह अध्याय वेसर शैली के विकास पर गहराई से चर्चा करता है, इसकी प्रमुख स्थापत्य विशेषताओं, कल्याणी के चालुक्यों के प्रभाव और वेसर मंदिरों के उल्लेखनीय उदाहरणों पर ध्यान केंद्रित करता है।
विकास और प्रभाव
मंदिर वास्तुकला की वेसर शैली उस समय विकसित हुई जब भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तरी और दक्षिणी राजवंशों का सांस्कृतिक और राजनीतिक संगम देखने को मिला। इस सम्मिश्रण के परिणामस्वरूप एक ऐसी शैली का उदय हुआ जिसमें नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों के तत्व शामिल थे, जिससे एक अलग वास्तुशिल्प पहचान बनी।
चालुक्यों का प्रभाव
कल्याणी के चालुक्य, एक प्रमुख राजवंश जिसने 10वीं से 12वीं शताब्दी तक दक्षिणी और मध्य भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया, ने वेसर शैली के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे कला और वास्तुकला के संरक्षण के लिए जाने जाते थे, जिसके कारण वेसर शैली को प्रदर्शित करने वाले कई मंदिरों का निर्माण हुआ।
- उदाहरण: कर्नाटक के ऐहोल में स्थित लाड खान मंदिर, वेसर वास्तुकला के सबसे पुराने उदाहरणों में से एक है। इसमें नागर और द्रविड़ तत्वों का मिश्रण है, जैसे कि सीढ़ीदार पिरामिडनुमा छत और अलंकृत स्तंभ। वेसर शैली की विशेषता इसकी वास्तुकला संश्लेषण है, जिसमें नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों की विशेषताएं शामिल हैं। यह खंड वेसर शैली को परिभाषित करने वाली प्रमुख वास्तुकला विशेषताओं का पता लगाता है।
शैलियों का मिश्रण
वेसर शैली नागर और द्रविड़ तत्वों के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण से चिह्नित है। इसमें अक्सर नागर शैली के वक्रीय शिखर को द्रविड़ शैली के पिरामिडनुमा विमान के साथ जोड़ा जाता है, जिससे एक अनूठी संरचना बनती है जो सुरुचिपूर्ण और भव्य दोनों होती है।
- उदाहरण: ऐहोल का दुर्गा मंदिर अपने गोलाकार गर्भगृह के शीर्ष पर नागर शैली का शिखर और द्रविड़ शैली का मंडप बनाकर इस सम्मिश्रण को प्रदर्शित करता है।
मंदिर का लेआउट
वेसर मंदिर आमतौर पर एक वर्गाकार या आयताकार योजना के होते हैं जिसमें एक गर्भगृह (गर्भगृह), एक पूर्व कक्ष और एक स्तंभयुक्त हॉल (मंडप) होता है। मंदिरों में सहायक मंदिर और सजावटी तत्व भी शामिल हो सकते हैं जो क्षेत्रीय प्रभावों को दर्शाते हैं।
- उदाहरण: ऐहोल में हुच्चिमल्ली गुड़ी मंदिर एक वेसर मंदिर का उदाहरण है, जिसका लेआउट बहुत ही स्पष्ट है, जिसमें एक गर्भगृह, एक पूर्व कक्ष और एक मंडप है।
अलंकरण
वेसर शैली अपनी जटिल अलंकरण के लिए जानी जाती है, जिसमें नागर मंदिरों की विशिष्ट विस्तृत नक्काशी को द्रविड़ मंदिरों में पाई जाने वाली विस्तृत मूर्तियों के साथ जोड़ा जाता है। ये सजावटी तत्व अक्सर देवताओं, पौराणिक दृश्यों और पुष्प रूपांकनों को दर्शाते हैं।
- उदाहरण: यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल पट्टाडकल के मंदिर अपनी विस्तृत नक्काशी और मूर्तिकला के लिए प्रसिद्ध हैं, जो वेसर शैली की कलात्मक उत्कृष्टता को प्रदर्शित करते हैं।
महत्वपूर्ण मंदिर
वेसर शैली का उदाहरण कई महत्वपूर्ण मंदिरों में मिलता है जो उस काल के वास्तुशिल्पीय नवाचारों और सांस्कृतिक प्रभावों को उजागर करते हैं।
पट्टदकल मंदिर
कर्नाटक में स्थित पट्टाडकल, मंदिरों के एक समूह का घर है जो वेसर वास्तुकला के शिखर को दर्शाता है। इन मंदिरों का निर्माण चालुक्यों के संरक्षण में किया गया था और इनमें स्थापत्य शैलियों का मिश्रण है।
- उदाहरण: 8वीं शताब्दी में निर्मित विरुपाक्ष मंदिर, अपने भव्य प्रवेश द्वार, जटिल नक्काशी और नागर और द्रविड़ तत्वों के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण के साथ, वेसर वास्तुकला का एक प्रमुख उदाहरण है।
अन्य उदाहरण
वेसर शैली के मंदिरों के अन्य उल्लेखनीय उदाहरणों में ऐहोल में गलगनाथ मंदिर और पट्टाडकल में मल्लिकार्जुन मंदिर शामिल हैं। ये मंदिर वेसर शैली की वास्तुकला की विविधता और नवीनता को दर्शाते हैं।
कल्याणी के चालुक्य
कल्याणी के चालुक्यों ने वेसर शैली के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके शासनकाल में कलात्मक और स्थापत्य कला का उत्कर्ष हुआ, जिसके कारण कई मंदिरों का निर्माण हुआ जो इस अनूठी शैली को दर्शाते हैं।
ऐहोल और पट्टाडकल
कर्नाटक में स्थित ऐहोल और पट्टदकल दोनों ही महत्वपूर्ण स्थल हैं जो वेसर शैली के विकास और प्रसार को उजागर करते हैं। चालुक्य काल के दौरान ये क्षेत्र सांस्कृतिक और स्थापत्य कला के केंद्र के रूप में काम करते थे।
वास्तुकला विकास
वेसर शैली 7वीं से 12वीं शताब्दी के दौरान विकसित हुई, यह वह समय था जब भारतीय मंदिर वास्तुकला में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे थे। इस अवधि में विभिन्न स्थापत्य परंपराओं का सम्मिश्रण देखा गया, जिससे वेसर जैसी नई शैलियों का उदय हुआ।
शिखर और विमान
वेसर शैली में प्रायः नागर परम्परा के वक्ररेखीय शिखर को द्रविड़ शैली के चरणबद्ध पिरामिडनुमा विमान के साथ संयोजित किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप एक अद्वितीय और देखने में आकर्षक छत संरचना बनती है।
मंडप और स्तंभ
वेसर मंदिरों में मंडप विशाल होते हैं और अक्सर जटिल नक्काशीदार स्तंभों द्वारा समर्थित होते हैं, जो नागर और द्रविड़ दोनों शैलियों के कलात्मक प्रभावों का मिश्रण दर्शाते हैं।
- उदाहरण: ऐहोल में गलगनाथ मंदिर के स्तंभ विस्तृत नक्काशी से सुसज्जित हैं, जो वेसर शैली की कलात्मक उत्कृष्टता को प्रदर्शित करते हैं।
ऐतिहासिक संदर्भ
वेसर शैली का विकास भारत के उत्तरी और दक्षिणी क्षेत्रों के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान और राजनीतिक संपर्क के समय हुआ। इस अवधि में चालुक्य जैसे शक्तिशाली राजवंशों का उदय हुआ, जिन्होंने दक्कन क्षेत्र के स्थापत्य परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
घटनाएँ और तिथियाँ
- 7वीं से 12वीं शताब्दी: वेसर शैली का विकास और प्रसार, ऐहोल और पट्टाडकल में महत्वपूर्ण मंदिरों के निर्माण द्वारा चिह्नित।
- चालुक्य काल (10वीं से 12वीं शताब्दी): कल्याणी के चालुक्य वेसर वास्तुकला के प्रमुख संरक्षक थे, जिन्होंने इसके विकास और दक्कन क्षेत्र में इसके प्रसार में योगदान दिया।
बौद्ध और जैन स्थापत्य कला का विकास
बौद्ध और जैन मंदिरों में वास्तुकला का विकास भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अवधि का प्रतिनिधित्व करता है, जो विशिष्ट शैलियों, नवाचारों और प्रमुख शासकों और राजवंशों के योगदान से चिह्नित है। यह अध्याय इन विकासों की पड़ताल करता है, जिसमें बौद्ध और जैन मंदिरों को परिभाषित करने वाले प्रमुख योगदानों, महत्वपूर्ण स्थलों और वास्तुकला विशेषताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है।
बौद्ध वास्तुकला
भारत में बौद्ध वास्तुकला की विशेषता इसके स्तूप, विहार, चैत्य और चट्टान से बनी गुफाएँ हैं। बौद्ध वास्तुकला के विकास का पता तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में लगाया जा सकता है, जो राजा अशोक के शासनकाल के दौरान हुआ था, जिन्होंने बौद्ध धर्म और इसकी स्थापत्य कला को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
राजा अशोक का योगदान
मौर्य सम्राट राजा अशोक (लगभग 268-232 ईसा पूर्व) ने भारतीय उपमहाद्वीप में बौद्ध धर्म के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। बौद्ध वास्तुकला में उनका योगदान गहरा और स्थायी है।
- स्तूप: अशोक ने कई स्तूपों का निर्माण करवाया था, जो अर्धगोलाकार संरचनाएं हैं जिनमें बुद्ध के अवशेष रखे गए हैं। मध्य प्रदेश में स्थित सांची स्तूप उनके शासनकाल के दौरान बनाए गए सबसे प्रसिद्ध स्तूपों में से एक है।
- स्तंभ: अशोक ने बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को बढ़ावा देने वाले शिलालेखों के साथ स्तंभ बनवाए। सारनाथ में स्थित स्तंभ जैसे स्तंभ अपनी वास्तुकला की सुंदरता और ऐतिहासिक महत्व के लिए जाने जाते हैं।
महत्वपूर्ण बौद्ध स्थल
अजंता की गुफाएं
महाराष्ट्र में अजंता की गुफाएँ चट्टानों को काटकर बनाई गई गुफाओं की एक श्रृंखला है, जो दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर लगभग 480 ईसवी तक की हैं। वे अपने उत्कृष्ट भित्तिचित्रों और मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं, जो विभिन्न जातक कथाओं और बुद्ध के जीवन को दर्शाती हैं।
- विशेषताएँ: गुफाओं में विहार (मठ) और चैत्य (प्रार्थना कक्ष) शामिल हैं, जिनमें जटिल नक्काशी और पेंटिंग्स प्रदर्शित हैं। वास्तुकला का लेआउट कई शताब्दियों में बौद्ध कला और वास्तुकला के विकास को दर्शाता है।
एलोरा की गुफाएं
महाराष्ट्र में ही एलोरा की गुफाएँ बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म और जैन धर्म के सह-अस्तित्व को दर्शाती हैं, जहाँ बौद्ध धर्म को समर्पित 12 गुफाएँ हैं। 5वीं और 10वीं शताब्दी के बीच निर्मित ये गुफाएँ अपने भव्य पैमाने और कलात्मक जटिलता के लिए जानी जाती हैं।
- विशेषताएं: एलोरा की बौद्ध गुफाओं में मुख्य रूप से विहार हैं और उनमें बैठे हुए बुद्ध और बोधिसत्व जैसी प्रभावशाली मूर्तियां शामिल हैं।
जैन वास्तुकला
जैन वास्तुकला के विकास की विशेषता समरूपता, विस्तृत नक्काशी और मंदिरों और गुफाओं के निर्माण पर जोर देना है। जैन वास्तुकला विभिन्न राजवंशों के तहत विकसित हुई और भारत की सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग बनी हुई है।
राष्ट्रकूटों का योगदान
राष्ट्रकूटों ने, जिन्होंने 8वीं से 10वीं शताब्दी तक भारतीय उपमहाद्वीप के बड़े हिस्से पर शासन किया, जैन वास्तुकला में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
- एलोरा की गुफाएँ: राष्ट्रकूटों ने एलोरा की कुछ जैन गुफाओं का निर्माण करवाया था। ये गुफाएँ अपनी विस्तृत मूर्तियों और जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें विभिन्न तीर्थंकरों और जैन ब्रह्मांड विज्ञान को दर्शाया गया है।
महत्वपूर्ण जैन स्थल
एलीफेंटा गुफाएं
मुम्बई के निकट एलीफेंटा द्वीप पर स्थित एलीफेंटा गुफाओं में चट्टान को काटकर बनाई गई मूर्तियां हैं, जो मुख्य रूप से हिंदू पौराणिक कथाओं से जुड़ी हैं, लेकिन इनमें जैन तत्व भी शामिल हैं, जो भारतीय कला और वास्तुकला की समन्वयात्मक प्रकृति को दर्शाते हैं।
- विशेषताएं: गुफाओं में प्रभावशाली नक्काशी और मूर्तियां हैं, जो उस समय के कलात्मक कौशल को दर्शाती हैं।
जैन मंदिर वास्तुकला
जैन मंदिर अपनी विस्तृत सजावट, संगमरमर के उपयोग और जटिल लेआउट के लिए प्रसिद्ध हैं। इन मंदिरों में अक्सर जटिल नक्काशीदार खंभे, विस्तृत फ्रिज़ और सममित डिजाइन होते हैं।
- उदाहरण: राजस्थान के माउंट आबू में स्थित दिलवाड़ा मंदिर जैन मंदिर वास्तुकला का एक आदर्श उदाहरण है, जो अपने अद्भुत संगमरमर के काम और विस्तृत नक्काशी के लिए जाना जाता है।
राजा अशोक
बौद्ध वास्तुकला को बढ़ावा देने में एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में, राजा अशोक के शासनकाल ने महत्वपूर्ण वास्तुशिल्प विकास की शुरुआत की, जिसने सदियों तक बौद्ध कला और वास्तुकला को प्रभावित किया।
राष्ट्रकूट
राष्ट्रकूटों ने बौद्ध और जैन वास्तुकला के विकास में योगदान दिया, विशेष रूप से एलोरा गुफाओं के संरक्षण के माध्यम से।
महत्वपूर्ण घटनाएँ एवं तिथियाँ
- तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व: राजा अशोक का शासनकाल, जिसके दौरान महत्वपूर्ण बौद्ध स्थापत्य परियोजनाएं शुरू की गईं।
- दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से 480 ईसवी तक: अजंता गुफाओं का निर्माण, जो बौद्ध कला के विकास को प्रदर्शित करता है।
- 5वीं से 10वीं शताब्दी: एलोरा गुफाओं का विकास, राष्ट्रकूटों के योगदान पर प्रकाश डालता है। यह अध्याय बौद्ध और जैन परंपराओं में स्थापत्य कला के विकास की गहन खोज प्रदान करता है, जिसमें इस समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को परिभाषित करने वाली विशिष्ट शैलियों, योगदानों और महत्वपूर्ण स्थलों पर जोर दिया गया है।
नागर मंदिर वास्तुकला की उप-शाखाएँ
उत्तरी भारत में प्रचलित मंदिर वास्तुकला की नागर शैली अपनी विशिष्ट विशेषताओं, जैसे कि घुमावदार शिखर के लिए प्रसिद्ध है। हालाँकि, नागर शैली के भीतर, कई उप-विद्यालय हैं जो समय के साथ उभरे हैं, जिनमें से प्रत्येक में अद्वितीय वास्तुशिल्प तत्व और क्षेत्रीय अनुकूलन हैं। यह अध्याय नागर वास्तुकला के उप-विद्यालयों की खोज करता है, ओडिशा, चंदेल और सोलंकी शैलियों पर ध्यान केंद्रित करता है, और शिखर और नक्काशी सहित उनकी विशिष्ट वास्तुशिल्प विशेषताओं पर प्रकाश डालता है।
ओडिशा नागर वास्तुकला स्कूल
ओडिशा शैली, जिसे कलिंग वास्तुकला के नाम से भी जाना जाता है, नागर शैली की सबसे प्रमुख उप-शैली में से एक है। यह मुख्य रूप से ओडिशा राज्य में पाई जाती है और इसकी विशेषता इसकी ऊर्ध्वाधर जोर और विस्तृत अलंकरण है।
विशिष्ट वास्तुकला विशेषताएँ
शिकारे
ओडिशा स्कूल के शिकारे अपनी ऊर्ध्वाधर और धारीदार संरचनाओं के लिए जाने जाते हैं, जिन्हें अक्सर 'रेखा देउल' कहा जाता है। ये शिकारे लंबे और पतले होते हैं, जो ऊपर की ओर एक जोर पैदा करते हैं जो देखने में आकर्षक लगते हैं।
- उदाहरण: भुवनेश्वर स्थित लिंगराज मंदिर अपनी ऊंची ऊंचाई और सुंदर डिजाइन के कारण ओडिशा के रेखा देउल शिकारा का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
कार्विंग
ओडिशा के मंदिर अपनी विस्तृत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें अक्सर पौराणिक दृश्य, देवता और पुष्प आकृतियाँ दर्शाई जाती हैं। मूर्तियों में बहुत ही बारीकी से नक्काशी की गई है, जो इस क्षेत्र की कलात्मक उत्कृष्टता को दर्शाती है।
- उदाहरण: कोणार्क का सूर्य मंदिर अपनी विस्तृत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, जो पूरे मंदिर की संरचना को कवर करती है तथा जीवन और पौराणिक कथाओं के विभिन्न पहलुओं को चित्रित करती है।
- भुवनेश्वर: "भारत के मंदिर शहर" के रूप में जाना जाने वाला भुवनेश्वर ओडिशा शैली की वास्तुकला के कई उदाहरणों का घर है, जिसमें मुक्तेश्वर मंदिर भी शामिल है, जिसका निर्माण 10वीं शताब्दी में हुआ था।
- राजा नरसिंहदेव प्रथम: 13वीं शताब्दी में कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया, जो कलिंग वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है।
चंदेल नागर वास्तुकला शैली
चंदेल स्कूल मुख्य रूप से मध्य प्रदेश के खजुराहो के मंदिरों से जुड़ा हुआ है। यह उप-विद्यालय अपनी जटिल मूर्तियों और कामुक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, जो चंदेल राजवंश की कलात्मक दृष्टि को दर्शाता है। चंदेल स्कूल के शिखरों की विशेषता उनके अलंकृत डिजाइन और कई प्रक्षेपण हैं, जो अक्सर एक समूहबद्ध उपस्थिति बनाते हैं। इन मंदिरों में आरोही शिखरों की एक श्रृंखला है, जो उन्हें एक अद्वितीय सिल्हूट प्रदान करती है।
- उदाहरण: खजुराहो में कंदारिया महादेव मंदिर अपनी जटिल शिखर संरचना के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें कई शिखर एक प्रभावशाली क्षितिज बनाने के लिए स्तरों में ऊपर उठते हैं। चंदेल मंदिर अपनी विस्तृत और कभी-कभी कामुक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं, जो देवताओं, आकाशीय प्राणियों और रोजमर्रा की जिंदगी के दृश्यों सहित कई विषयों को दर्शाते हैं।
- उदाहरण: खजुराहो का लक्ष्मण मंदिर अपनी जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, जो बाहरी दीवारों पर बनी हुई है तथा चंदेला कारीगरों की कलात्मक कुशलता को दर्शाती है।
- चंदेला राजवंश: वे शासक जिन्होंने 10वीं और 11वीं शताब्दी के बीच खजुराहो मंदिर समूह के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- खजुराहो: यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, खजुराहो चंदेल शैली की स्थापत्य कला और कलात्मक उपलब्धियों का प्रमाण है।
सोलंकी नागर वास्तुकला स्कूल
सोलंकी शैली, जिसे मारू-गुर्जर शैली के नाम से भी जाना जाता है, गुजरात और राजस्थान के क्षेत्र में फली-फूली। यह अपनी जटिल अलंकरण और अद्वितीय मंदिर लेआउट के लिए जाना जाता है। सोलंकी शिकारे आम तौर पर अलंकृत होते हैं और इनमें ऊर्ध्वाधर और क्षैतिज तत्वों का संयोजन होता है, जिन्हें अक्सर अमलका और कलश से ढका जाता है। शिकारे समृद्ध रूप से सजाए गए होते हैं, जो क्षेत्र की कलात्मक परंपराओं को दर्शाते हैं।
- उदाहरण: गुजरात के मोढेरा सूर्य मंदिर में एक सुंदर नक्काशीदार शिखर है जो विस्तृत अलंकरण पर सोलंकी शैली के जोर का उदाहरण है। सोलंकी शैली अपनी जटिल नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें ज्यामितीय पैटर्न से लेकर देवताओं और पौराणिक कथाओं के विस्तृत चित्रण तक कई तरह के रूपांकन शामिल हैं।
- उदाहरण: गुजरात के पाटण में स्थित रानी की वाव (रानी की बावड़ी) अपनी दीवारों और स्तंभों पर की गई विस्तृत नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है, जो सोलंकी कारीगरों की शिल्पकला को दर्शाती है।
- सोलंकी राजवंश: वे शासक जिन्होंने 11वीं से 13वीं शताब्दी के दौरान गुजरात में अनेक मंदिरों और बावड़ियों के निर्माण को संरक्षण दिया।
- पाटण: गुजरात का एक ऐतिहासिक शहर, जो रानी की वाव जैसे वास्तुशिल्प आश्चर्यों के लिए जाना जाता है, जो सोलंकी शैली को दर्शाता है।
वास्तुकला संबंधी विशेषताएँ और अंतर
नागर वास्तुकला के उप-विद्यालयों को उनके विशिष्ट शिकारों, नक्काशी और समग्र स्थापत्य विशेषताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है। जबकि ये शैलियाँ नागर परंपरा के सामान्य तत्वों को साझा करती हैं, प्रत्येक उप-विद्यालय ने अद्वितीय विशेषताएँ विकसित की हैं जो क्षेत्रीय प्रभावों और कलात्मक प्राथमिकताओं को दर्शाती हैं।
- शिकारा: ओडिशा, चंदेल और सोलंकी शैलियों के बीच शिकारा डिजाइनों में अंतर नागर वास्तुकला के भीतर विविधता को उजागर करता है।
- नक्काशी: खजुराहो की कामुक मूर्तियों से लेकर मोढेरा की जटिल अलंकरण तक, नक्काशी में विविधता प्रत्येक उप-विद्यालय की समृद्ध कलात्मक परंपराओं को दर्शाती है। नागर मंदिर वास्तुकला के भीतर उप-विद्यालयों की खोज से विविधता और क्षेत्रीय अनुकूलन का पता चलता है जिसने भारत की वास्तुकला विरासत को आकार दिया है। प्रत्येक उप-विद्यालय, अपनी अनूठी विशेषताओं के साथ, नागर वास्तुकला की समृद्ध टेपेस्ट्री में योगदान देता है, जो उन क्षेत्रों के सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संदर्भ में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं।
मंदिर वास्तुकला पर राजवंशों का प्रभाव
भारत में मंदिर वास्तुकला का विकास विभिन्न राजवंशों के उत्थान और पतन से निकटता से जुड़ा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक ने वास्तुकला परिदृश्य पर एक अनूठी छाप छोड़ी है। यह अध्याय पल्लव, चोल और होयसल जैसे प्रमुख राजवंशों के प्रभाव का पता लगाता है, और यह बताता है कि उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग मंदिर वास्तुकला शैलियों के विकास में कैसे योगदान दिया।
मंदिर वास्तुकला पर प्रभाव
पल्लव, जिन्होंने तीसरी से नौवीं शताब्दी तक दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन किया, द्रविड़ वास्तुकला के विकास में अग्रणी थे। उन्होंने चट्टानों को काटकर बनाए गए मंदिरों से संरचनात्मक मंदिरों में परिवर्तन की शुरुआत की, जिसने दक्षिण भारतीय मंदिर वास्तुकला में भविष्य के विकास की नींव रखी।
प्रमुख वास्तुकला विकास
- चट्टान काटकर बनाई गई वास्तुकला: पल्लव अपने चट्टान काटकर बनाए गए मंदिरों के लिए प्रसिद्ध हैं, खास तौर पर महाबलीपुरम (मामल्लापुरम) में। ये मंदिर द्रविड़ वास्तुकला के शुरुआती उदाहरणों में से हैं।
- संरचनात्मक मंदिर: महाबलीपुरम में तट मंदिर पल्लवों द्वारा निर्मित एक प्रमुख संरचनात्मक मंदिर है, जो उनकी स्थापत्य कला की नवीनता को दर्शाता है।
लोग, स्थान और घटनाएँ
- नरसिंहवर्मन प्रथम (630-668 ई.): इन्हें मामल्ला के नाम से भी जाना जाता है, इन्होंने महाबलीपुरम को कला और वास्तुकला के केंद्र के रूप में विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
- महाबलीपुरम (मामल्लापुरम): यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल, यह पल्लव शासनकाल के दौरान बनाए गए अपने चट्टानी मंदिरों और स्मारकों के लिए प्रसिद्ध है। चोल राजवंश, जिसने 9वीं से 13वीं शताब्दी तक शासन किया, ने द्रविड़ मंदिर वास्तुकला को अपने चरम पर पहुँचाया। उनके मंदिर विशाल पैमाने पर और जटिल विवरण वाले थे, जो राजवंश की समृद्धि और भक्ति को दर्शाते हैं।
- विमान और गोपुरम: चोल मंदिरों की विशेषता उनके विशाल विमान और विस्तृत रूप से सजाए गए गोपुरम हैं।
- ग्रेनाइट का उपयोग: चोलों ने ग्रेनाइट का व्यापक उपयोग किया, जिससे विशाल और टिकाऊ संरचनाओं का निर्माण संभव हो सका।
- मूर्तिकला कला: चोल मंदिर विस्तृत मूर्तियों और कांस्य प्रतिमाओं से सुसज्जित हैं, जो असाधारण शिल्प कौशल का प्रदर्शन करते हैं।
उदाहरण
- बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर): 11वीं शताब्दी के प्रारंभ में राजराजा चोल प्रथम द्वारा निर्मित, यह यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल और चोल वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है।
- ऐरावतेश्वर मंदिर (दारासुरम): अपनी जटिल नक्काशी और कलात्मक उत्कृष्टता के लिए जाना जाता है।
- राजराजा चोल प्रथम (985-1014 ई.): उनके शासनकाल में चोल स्थापत्य कला की उपलब्धियाँ चरम पर थीं।
- तंजावुर: चोल वंश की राजधानी और बृहदेश्वर मंदिर का स्थान।
होयसला
होयसल, जिन्होंने 11वीं से 14वीं शताब्दी तक वर्तमान कर्नाटक के कुछ हिस्सों पर शासन किया, ने एक विशिष्ट शैली विकसित की जो अपनी जटिल बारीकियों और तारे के आकार के चबूतरों के लिए जानी जाती थी।
- तारे के आकार के मंच: होयसला मंदिरों में अक्सर तारे के आकार के मंच होते हैं, जिससे जटिल ज्यामितीय डिजाइन बनते हैं।
- विस्तृत नक्काशी: ये मंदिर अपनी जटिल पत्थर की नक्काशी के लिए प्रसिद्ध हैं, जिनमें हिंदू पौराणिक कथाओं के दृश्य दर्शाए गए हैं।
- सोपस्टोन का उपयोग: सोपस्टोन की नरम प्रकृति के कारण विस्तृत और जटिल मूर्तियां बनाना संभव हुआ।
- होयसलेश्वर मंदिर (हलेबिदु): अपनी उत्कृष्ट मूर्तियों और जटिल नक्काशी के लिए जाना जाता है।
- चेन्नाकेशव मंदिर (बेलूर): होयसला वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना, जो अपनी विस्तृत और सजावटी नक्काशी के लिए प्रसिद्ध है।
- विष्णुवर्धन (1108-1152 ई.): एक प्रमुख होयसल राजा जिसने चेन्नकेशव मंदिर सहित कई मंदिरों के निर्माण का आदेश दिया था।
- हलेबिदु: होयसला साम्राज्य की राजधानी और होयसलेश्वर मंदिर का स्थल।
अन्य प्रभावशाली राजवंश
- प्रभाव: राष्ट्रकूटों ने शैलकृत वास्तुकला के विकास में योगदान दिया, विशेष रूप से एलोरा गुफाओं में।
- उदाहरण: एलोरा में एक ही चट्टान को तराश कर बनाया गया कैलासा मंदिर उनकी स्थापत्य कला की उत्कृष्टता का प्रमाण है।
सोलंकी
- प्रभाव: गुजरात में शासन करने वाला सोलंकी राजवंश मारू-गुर्जर शैली के लिए जाना जाता है।
- उदाहरण: मोढेरा का सूर्य मंदिर, जो अपनी जटिल नक्काशी और बावड़ी वास्तुकला के लिए जाना जाता है।
- अमोघवर्ष प्रथम (814-878 ई.): एक राष्ट्रकूट राजा जो कला और वास्तुकला के संरक्षण के लिए जाना जाता था।
- एलोरा गुफाएं: एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, जो भारतीय वास्तुकला में राष्ट्रकूटों के योगदान को प्रदर्शित करता है।
क्षेत्रीय प्रभाव और शैलियाँ
- द्रविड़ शैली: मुख्य रूप से पल्लवों और चोलों से प्रभावित, विमान, गोपुरम और विशाल मंदिर परिसर इसकी विशेषता हैं।
- होयसला: अपने तारे के आकार के मंचों और विस्तृत नक्काशी के लिए जाने जाते हैं।
उत्तर भारत
- नागर शैली: विभिन्न राजवंशों से प्रभावित, घुमावदार शिखर और जटिल नक्काशी इसकी विशेषता है।
- तीसरी से नौवीं शताब्दी: प्रारंभिक द्रविड़ वास्तुकला में पल्लव वंश का योगदान।
- 9वीं से 13वीं शताब्दी: चोल वंश की वास्तुकला का चरमोत्कर्ष।
- 11वीं से 14वीं शताब्दी: होयसल राजवंश की अनूठी स्थापत्य शैली। मंदिर वास्तुकला पर विभिन्न राजवंशों के प्रभाव की यह व्यापक खोज भारतीय मंदिर वास्तुकला की समृद्ध और विविध विरासत और विभिन्न क्षेत्रों और अवधियों में इसके विकास पर प्रकाश डालती है।
तुलनात्मक विश्लेषण: नागर बनाम द्रविड़ शैली
भारत की मंदिर वास्तुकला देश की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और विविधता का प्रमाण है। सबसे प्रमुख शैलियों में नागर और द्रविड़ शैलियाँ हैं, जिनमें से प्रत्येक में अलग-अलग संरचनात्मक और डिज़ाइन तत्व हैं जो क्षेत्रीय प्रभावों और ऐतिहासिक विकास को दर्शाते हैं। यह अध्याय इन दो शैलियों का विस्तृत तुलनात्मक विश्लेषण प्रदान करता है, जो संरचना, डिज़ाइन और विशेषताओं में उनके प्रमुख अंतरों पर ध्यान केंद्रित करता है।
संरचना
नागरा शैली
उत्तर भारत में प्रचलित नागर शैली की विशेषता इसकी वक्र रेखादार शिखर (शिखर) है जो गर्भगृह या गर्भगृह से ऊपर की ओर खड़ी होती है। इस शैली में आम तौर पर एक वर्गाकार या क्रूसिफ़ॉर्म ग्राउंड प्लान होता है, जिसमें एक गर्भगृह, एक पूर्व कक्ष और एक मंडप (स्तंभों वाला हॉल) होता है।
- उदाहरण: मध्य प्रदेश के खजुराहो में स्थित कंदरिया महादेव मंदिर, अपने स्तरित और जटिल नक्काशीदार शिखरों के साथ नागर शैली का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है।
द्रविड़ शैली
इसके विपरीत, दक्षिण भारत में प्रचलित द्रविड़ शैली की पहचान इसके पिरामिडनुमा शिखर से होती है, जिसे विमान के नाम से जाना जाता है। मंदिर परिसर अक्सर ऊंची दीवारों से घिरा होता है, जिसमें विशाल प्रवेश द्वार होते हैं जिन्हें गोपुरम के नाम से जाना जाता है। भूमि की योजना आम तौर पर विस्तृत होती है, जिसमें कई मंडप और उप-मंदिर होते हैं।
- उदाहरण: तमिलनाडु के तंजावुर में स्थित बृहदेश्वर मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का एक प्रतीकात्मक उदाहरण है, जिसमें विशाल विमान और जटिल रूप से सुसज्जित गोपुरम हैं।
डिज़ाइन
नागरा शैली डिजाइन
नागर मंदिरों के डिजाइन में अक्सर ऊर्ध्वाधरता पर जोर दिया जाता है, जिसमें शिखर केंद्रीय केंद्र बिंदु होता है। मंदिर आमतौर पर एक पत्थर के मंच (जगती) पर बनाए जाते हैं, जो संरचना को ऊंचा करता है और एक प्रदक्षिणा पथ (परिक्रमा पथ) प्रदान करता है।
- उदाहरण: गुजरात के मोढेरा में स्थित सूर्य मंदिर एक ऊंचे मंच पर स्थित है, जो इसकी भव्यता को बढ़ाता है और अनुष्ठानिक परिक्रमा के लिए मार्ग प्रदान करता है।
द्रविड़ शैली डिजाइन
दूसरी ओर, द्रविड़ मंदिर क्षैतिज विस्तार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जिसमें गलियारों, बड़े मंडपों और विशाल मंदिर परिसरों का व्यापक उपयोग होता है। गोपुरम, जो अक्सर आंतरिक गर्भगृह से ऊंचे होते हैं, प्रमुख वास्तुशिल्प विशेषताओं के रूप में कार्य करते हैं, जो जीवंत मूर्तियों और विस्तृत नक्काशी से सुसज्जित होते हैं।
- उदाहरण: तमिलनाडु के मदुरै में स्थित मीनाक्षी मंदिर अपने विशाल लेआउट और ऊंचे गोपुरम के लिए प्रसिद्ध है, जिनमें से प्रत्येक को रंगीन मूर्तियों से सजाया गया है।
क्षेत्रीय प्रभाव
नागर शैली क्षेत्रीय प्रभाव
नागर शैली में स्थानीय परंपराओं और सामग्रियों से प्रभावित महत्वपूर्ण क्षेत्रीय विविधताएं देखने को मिलती हैं। प्रमुख उप-विद्यालयों में ओडिशा, चंदेल और सोलंकी स्कूल शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक में अद्वितीय अनुकूलन हैं।
- ओडिशा स्कूल: यह अपने रेखा देउल शिकारा और विस्तृत नक्काशी के लिए जाना जाता है, जैसा कि भुवनेश्वर के लिंगराज मंदिर में देखा जा सकता है।
- चंदेल स्कूल: अपने अलंकृत शिकारों और कामुक नक्काशी के लिए प्रसिद्ध, जिसका उदाहरण खजुराहो के मंदिर हैं।
- सोलंकी स्कूल: इसमें जटिल अलंकरण और अद्वितीय मंदिर लेआउट शामिल हैं, जैसे कि गुजरात में मोढेरा सूर्य मंदिर।
द्रविड़ शैली क्षेत्रीय प्रभाव
पल्लव, चोल और होयसल जैसे विभिन्न राजवंशों से प्रभावित द्रविड़ शैली कलात्मक परंपराओं और क्षेत्रीय अनुकूलन का मिश्रण दर्शाती है।
- पल्लव: चट्टानों को काटकर तथा संरचनात्मक मंदिरों का निर्माण प्रारंभ किया, विशेष रूप से महाबलीपुरम में।
- चोल: बृहदेश्वर मंदिर जैसी स्मारकीय संरचनाओं के साथ द्रविड़ वास्तुकला को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया।
- होयसलस: अपने जटिल विवरण और तारे के आकार के प्लेटफार्मों के लिए जाना जाता है, जैसा कि हलेबिदु में होयसलेश्वर मंदिर में देखा गया है।
विशेषताएँ
नागर शैली की विशेषताएँ
- वक्रीय शिखर: नागर मंदिरों की विशिष्ट विशेषता, जो प्रायः जटिल नक्काशी से युक्त होते हैं तथा एक कलश में समाप्त होते हैं।
- पत्थर का मंच (जगती): मंदिर की संरचना को ऊंचा उठाता है, तथा इसके सौंदर्यात्मक आकर्षण को बढ़ाता है।
- विस्तृत नक्काशी: देवी-देवताओं, पौराणिक दृश्यों और पुष्प आकृतियां दर्शाती हैं, जो कलात्मक समृद्धि प्रदान करती हैं।
द्रविड़ शैली की विशेषताएँ
- पिरामिड विमान: इसकी विशेषता इसकी चरणबद्ध डिजाइन है, जो एक गुम्बदनुमा संरचना में परिणत होती है।
- गोपुरम: मूर्तियों से सुसज्जित स्मारकीय प्रवेश द्वार, जो वास्तुकला के केन्द्र बिन्दु के रूप में कार्य करते हैं।
- मंदिर की सीमाएं: ऊंची दीवारों से घिरी हुई, बाहरी दुनिया से अलग एक पवित्र स्थान का निर्माण करती हैं।
तुलना
मतभेद
- शिखर बनाम विमान: नागर मंदिरों में घुमावदार शिखर होते हैं, जबकि द्रविड़ मंदिरों में पिरामिडनुमा विमान होते हैं।
- ऊर्ध्वाधर बनाम क्षैतिज जोर: नागर वास्तुकला ऊर्ध्वाधरता पर जोर देती है, जबकि द्रविड़ वास्तुकला क्षैतिज विस्तार पर केंद्रित है।
- क्षेत्रीय विविधताएँ: नागर शैली विविध क्षेत्रीय अनुकूलन प्रदर्शित करती है, जबकि द्रविड़ शैली पूरे दक्षिणी भारत में एकरूपता दर्शाती है।
समानताएँ
- आध्यात्मिक महत्व: दोनों शैलियाँ अपने-अपने क्षेत्रों के लिए पूजा स्थल और आध्यात्मिक केंद्र के रूप में कार्य करती हैं।
- कलात्मक उत्कृष्टता: दोनों शैलियाँ विस्तृत नक्काशी और मूर्तियों के माध्यम से असाधारण शिल्प कौशल का प्रदर्शन करती हैं।
प्रमुख लोगों
- राजराजा चोल प्रथम: उनके शासनकाल में बृहदेश्वर मंदिर के निर्माण के साथ द्रविड़ वास्तुकला का चरमोत्कर्ष हुआ।
- चंदेला राजवंश: उनके संरक्षण से खजुराहो मंदिरों का निर्माण हुआ, जो नागर वास्तुकला का शिखर है।
महत्वपूर्ण स्थान
- महाबलीपुरम: प्रारंभिक द्रविड़ वास्तुकला का केंद्र, जो अपने चट्टान-काट मंदिरों के लिए जाना जाता है।
- खजुराहो: एक यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल, जो अपने जटिल नागर शैली के मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है।
- तीसरी से नौवीं शताब्दी: द्रविड़ वास्तुकला में पल्लव वंश का योगदान।
- 9वीं से 13वीं शताब्दी: द्रविड़ शैली में चोल वंश की स्थापत्य कला की उपलब्धियाँ।
- 10वीं से 11वीं शताब्दी: चंदेल राजवंश के तहत खजुराहो मंदिरों का निर्माण। यह व्यापक विश्लेषण मंदिर वास्तुकला की नागरा और द्रविड़ शैलियों को परिभाषित करने वाली विशिष्ट विशेषताओं, संरचनात्मक अंतरों और क्षेत्रीय प्रभावों पर प्रकाश डालता है, जो भारतीय मंदिर वास्तुकला की समृद्ध और विविध विरासत में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।