कर्नाटक संगीत

Carnatic Music


कर्नाटक संगीत का परिचय

कर्नाटक संगीत का अवलोकन

कर्नाटक संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक महत्वपूर्ण शाखा है, जो मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी भाग से जुड़ी है, जिसमें तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश राज्य शामिल हैं। यह समृद्ध संगीत परंपरा अपनी जटिल संरचनाओं और आध्यात्मिक सार के लिए जानी जाती है, जो अक्सर धार्मिक विषयों और रचनाओं से जुड़ी होती है। अपने उत्तरी समकक्ष, हिंदुस्तानी संगीत के विपरीत, कर्नाटक संगीत वाद्यों पर बजाए जाने पर भी मुखर संगीत पर अधिक जोर देता है।

हिंदुस्तानी संगीत से विशिष्टता

कर्नाटक संगीत हिंदुस्तानी संगीत से अलग है, जो उत्तर भारत में प्रचलित है। जबकि दोनों भारतीय शास्त्रीय संगीत के अभिन्न अंग हैं, वे अपनी शैली, संरचना और प्रदर्शन में भिन्न हैं। हिंदुस्तानी संगीत में अक्सर लंबे सुधार शामिल होते हैं और यह फ़ारसी और इस्लामी संगीत परंपराओं से प्रभावित होता है, जबकि कर्नाटक संगीत अधिक संरचित होता है और प्राचीन हिंदू संगीत परंपराओं में निहित होता है। इन दो रूपों के बीच का अंतर, जिसे अक्सर उत्तर-दक्षिण विभाजन के रूप में जाना जाता है, उनके अद्वितीय सांस्कृतिक प्रभावों और संगीत परंपराओं को उजागर करता है।

सांस्कृतिक महत्व

कर्नाटक संगीत का सांस्कृतिक महत्व बहुत गहरा है, क्योंकि यह दक्षिण भारत के आध्यात्मिक और धार्मिक जीवन से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसे अक्सर धार्मिक समारोहों, त्योहारों और शास्त्रीय संगीत समारोहों के दौरान बजाया जाता है। संगीत न केवल एक कलात्मक अभिव्यक्ति है, बल्कि भक्ति का माध्यम और आध्यात्मिक उत्थान का साधन भी है। कृतियों के नाम से जानी जाने वाली रचनाएँ अक्सर हिंदू देवताओं को समर्पित होती हैं और उन्हें भक्ति (भक्ति) का एक रूप माना जाता है।

भौगोलिक उत्पत्ति

कर्नाटक संगीत की भौगोलिक उत्पत्ति भारत के दक्षिणी क्षेत्रों में हुई है। तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और केरल राज्य इस संगीत शैली के उद्गम स्थल रहे हैं। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र ने कर्नाटक संगीत के विकास और संरक्षण में योगदान दिया है, जिसमें सदियों से विभिन्न शैलियाँ और विविधताएँ उभरी हैं।

मौलिक पहलू

संगीत परंपरा और शैलियाँ

कर्नाटक संगीत की विशेषता इसकी विस्तृत रचनाएँ, जटिल लय और मधुर संरचनाएँ हैं। संगीत की रचना विभिन्न शैलियों में की जाती है, जिसमें वर्णम, कृति और कीर्तन शामिल हैं, जिनमें से प्रत्येक का अपना अलग रूप और उद्देश्य होता है। वर्णम आमतौर पर किसी संगीत कार्यक्रम की शुरुआत में प्रस्तुत किए जाते हैं, जो वार्म-अप पीस के रूप में काम करते हैं, जबकि कृतियाँ मुख्य रचनाएँ होती हैं जो गायक के कौशल और भक्ति को प्रदर्शित करती हैं।

धुनें और गीत

कर्नाटक संगीत में धुनें और गीत रागों पर आधारित होते हैं, जो मधुर ढांचे होते हैं जो रचना के मूड और भावना को परिभाषित करते हैं। प्रत्येक राग विशिष्ट नोट्स और पैटर्न से जुड़ा होता है, जो एक संरचित ढांचे के भीतर रचनात्मकता और सुधार की अनुमति देता है। अक्सर संस्कृत, तेलुगु, तमिल या कन्नड़ में रचित गीत गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक संदेश देते हैं।

लोग, स्थान और घटनाएँ

उल्लेखनीय व्यक्तित्व

कर्नाटक संगीत की विरासत को कई दिग्गजों ने समृद्ध किया है जिन्होंने इसके विकास और संरक्षण में योगदान दिया है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री जैसे लोगों ने कर्नाटक संगीत की त्रिमूर्ति के रूप में जाने जाने वाले इस संगीत को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी रचनाएँ उनकी गीतात्मक सुंदरता और जटिल संगीतात्मकता के लिए प्रसिद्ध हैं।

ऐतिहासिक घटनाएँ

पूरे इतिहास में, विभिन्न घटनाओं ने कर्नाटक संगीत के विकास को प्रभावित किया है। उदाहरण के लिए, विजयनगर साम्राज्य जैसे शासकों के संरक्षण ने इस कला के विकास के लिए अनुकूल वातावरण प्रदान किया। 20वीं सदी की शुरुआत में संगीत अकादमियों और सभाओं (संगीत संगठनों) की स्थापना ने इसके विकास और प्रसार में और योगदान दिया।

सांस्कृतिक केंद्र

तमिलनाडु में चेन्नई (मद्रास) और तंजावुर जैसे शहर कर्नाटक संगीत के सांस्कृतिक केंद्र माने जाते हैं। वे कई संगीत समारोहों और कार्यक्रमों की मेजबानी करते हैं, जैसे कि मद्रास संगीत सत्र, जो दुनिया भर के संगीतकारों और उत्साही लोगों को आकर्षित करता है। ये शहर कर्नाटक संगीत की शास्त्रीय परंपरा को पोषित करने और बढ़ावा देने में सहायक रहे हैं। इन मूलभूत पहलुओं की खोज करके, कर्नाटक संगीत की समृद्ध ताने-बाने और भारतीय संस्कृति पर इसके स्थायी प्रभाव की गहरी समझ हासिल होती है।

ऐतिहासिक उत्पत्ति

ऐतिहासिक उत्पत्ति की खोज

भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक प्रमुख रूप कर्नाटक संगीत का एक समृद्ध और आकर्षक इतिहास है जो दक्षिण भारत की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ताने-बाने से गहराई से जुड़ा हुआ है। यह अध्याय कर्नाटक संगीत की ऐतिहासिक उत्पत्ति पर प्रकाश डालता है, प्राचीन हिंदू परंपराओं से इसके विकास का पता लगाता है और इस संगीत रूप को आकार देने में विभिन्न राजवंशों, विशेष रूप से विजयनगर साम्राज्य के प्रभाव की जांच करता है।

प्राचीन परंपराएँ

कर्नाटक संगीत की जड़ें प्राचीन हिंदू परंपराओं में हैं, जहाँ संगीत को एक दिव्य कला रूप और धार्मिक और आध्यात्मिक प्रथाओं का एक अनिवार्य हिस्सा माना जाता था। 1500-500 ईसा पूर्व के वैदिक ग्रंथों में संगीत प्रथाओं के संदर्भ हैं, जिसमें सामवेद एक महत्वपूर्ण दस्तावेज के रूप में कार्य करता है जो प्रारंभिक संगीत मंत्रों पर प्रकाश डालता है। इन मंत्रों ने कर्नाटक संगीत के मधुर और लयबद्ध दोनों पहलुओं की नींव रखी। इस अवधि के दौरान संगीत मुख्य रूप से भक्तिपूर्ण था, जिसका उपयोग अनुष्ठानों और समारोहों में दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए किया जाता था।

राजवंशों का प्रभाव

कर्नाटक संगीत का विकास भारत के दक्षिणी क्षेत्रों पर शासन करने वाले विभिन्न राजवंशों से काफी प्रभावित था। चोल, पांड्या और चेर राजवंश, जो 9वीं और 13वीं शताब्दी ई. के बीच फले-फूले, ने कला को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके शासनकाल के दौरान बनाए गए मंदिर सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में काम करते थे जहाँ संगीत और नृत्य पूजा और सामुदायिक जीवन का अभिन्न अंग थे।

विजयनगर साम्राज्य

कर्नाटक संगीत के इतिहास में सबसे प्रभावशाली राजवंशों में से एक विजयनगर साम्राज्य था, जिसने 1336 से 1646 ई. तक शासन किया। साम्राज्य के शासक, विशेष रूप से कृष्णदेवराय, कला के महान संरक्षक थे। विजयनगर साम्राज्य ने संगीतकारों और रचनाकारों के लिए एक उपजाऊ वातावरण प्रदान किया, जिससे कर्नाटक संगीत का उत्कर्ष हुआ। विजयनगर साम्राज्य के तहत, तेलुगु और कन्नड़ जैसी क्षेत्रीय भाषाओं में संगीत रचना और प्रदर्शन की परंपरा को प्रमुखता मिली। इस युग में कृतियों का विकास हुआ, जो आज भी कर्नाटक संगीत का केंद्र बना हुआ है। साम्राज्य की सांस्कृतिक नीतियों ने संगीत को साहित्य और नृत्य के साथ मिलाने को प्रोत्साहित किया, जिससे क्षेत्र की समग्र सांस्कृतिक विरासत समृद्ध हुई।

सांस्कृतिक विरासत और विकास

तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की सांस्कृतिक विरासत कर्नाटक संगीत के विकास से गहराई से जुड़ी हुई है। इनमें से प्रत्येक क्षेत्र ने इसके विकास में अद्वितीय योगदान दिया है:

  • तमिलनाडु: अपनी समृद्ध साहित्यिक और संगीत परंपरा के लिए प्रसिद्ध तमिलनाडु ने अलवार और नयनार जैसे अनेक संत-कवियों को जन्म दिया, जिनके भक्ति भजनों ने कर्नाटक रचनाओं को प्रभावित किया।
  • कर्नाटक: यह क्षेत्र पुरंदरदास के साथ अपने जुड़ाव के लिए प्रसिद्ध है, जिन्हें 'कर्नाटक संगीत के जनक' के रूप में सम्मानित किया जाता है। क्रमिक अभ्यास के माध्यम से संगीत सिखाने के उनके व्यवस्थित दृष्टिकोण ने आधुनिक कर्नाटक शिक्षाशास्त्र की नींव रखी।
  • आंध्र प्रदेश: विजयनगर और नायक शासकों के संरक्षण के कारण तेलुगु भाषा कर्नाटक रचनाओं के लिए एक प्रमुख माध्यम बन गई। अन्नामाचार्य जैसे संगीतकारों की रचनाएँ, जिन्होंने हज़ारों भक्ति गीतों की रचना की, आज भी पूजनीय हैं।
  • पुरंदरदास (1484-1564 ई.): 'कर्नाटक संगीत के जनक' के रूप में जाने जाने वाले पुरंदरदास का योगदान संगीत की संरचना और शिक्षाशास्त्र को आकार देने में बहुत बड़ा था। उनकी रचनाएँ, मुख्य रूप से कन्नड़ में, कर्नाटक संगीत के प्रदर्शन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
  • अन्नामाचार्य (1408-1503 ई.): आंध्र प्रदेश के एक विपुल संगीतकार, अन्नामाचार्य ने 32,000 से अधिक गीतों की रचना की, जो मुख्य रूप से देवता वेंकटेश्वर की स्तुति में थे। उनकी रचनाएँ कर्नाटक संगीत परंपरा का एक अभिन्न अंग हैं।
  • तंजावुर, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत के उद्गम स्थल के रूप में प्रसिद्ध तंजावुर चोल और नायक राजवंशों के शासनकाल के दौरान सांस्कृतिक उत्कृष्टता का केंद्र था। यह शास्त्रीय संगीत और नृत्य के लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र बना हुआ है।
  • हम्पी, कर्नाटक: विजयनगर साम्राज्य की राजधानी हम्पी के खंडहर साम्राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के प्रमाण हैं। हर साल हम्पी उत्सव में इस विरासत का जश्न मनाया जाता है, जिसमें कर्नाटक संगीत का प्रदर्शन होता है।
  • मंदिर निर्माण और संगीत: विभिन्न राजवंशों द्वारा भव्य मंदिरों के निर्माण ने संगीत को पूजा के अभिन्न अंग के रूप में विकसित करने में मदद की। तंजावुर में बृहदेश्वर मंदिर जैसे मंदिर संगीत सीखने और प्रदर्शन के केंद्र बन गए।
  • मद्रास संगीत सत्र: यद्यपि यह एक आधुनिक विकास है, लेकिन मद्रास संगीत सत्र की जड़ें 20वीं सदी की शुरुआत के सांस्कृतिक पुनरुद्धार आंदोलनों में हैं। यह कर्नाटक संगीत के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के लिए एक प्रमुख कार्यक्रम बन गया है, जो दुनिया भर के कलाकारों और दर्शकों को आकर्षित करता है। इन ऐतिहासिक उत्पत्ति और प्रभावों की जांच करके, हम इस बात की गहरी समझ प्राप्त करते हैं कि कर्नाटक संगीत आज की समृद्ध और जटिल परंपरा में कैसे विकसित हुआ।

पुरंदरदास: कर्नाटक संगीत के जनक

पुरंदरदास, जिन्हें अक्सर 'कर्नाटक संगीत के पिता' के रूप में सम्मानित किया जाता है, ने इस शास्त्रीय संगीत परंपरा के संहिताकरण और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके योगदान ने भारत के संगीत परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी है, और उनका प्रभाव आज भी कर्नाटक संगीत की प्रथाओं और शिक्षाशास्त्र में गूंजता रहता है।

प्रारंभिक जीवन और परिवर्तन

पुरंदरदास का जन्म श्रीनिवास नायक के रूप में 1484 ई. में वर्तमान कर्नाटक के पुरंदरगड़ा कस्बे में एक धनी व्यापारी परिवार में हुआ था। उनके जीवन में एक गहरा परिवर्तन तब आया जब उन्हें आध्यात्मिक जागृति का एक क्षण अनुभव हुआ, जिसके कारण उन्होंने अपनी भौतिक संपत्ति का त्याग कर दिया और संगीत और भक्ति को समर्पित जीवन अपना लिया।

कर्नाटक संगीत में योगदान

संगीत शैली का संहिताकरण

कर्नाटक संगीत में पुरंदरदास का सबसे महत्वपूर्ण योगदान इसकी शिक्षण विधियों का व्यवस्थित संहिताकरण था। उन्हें कर्नाटक संगीत शिक्षाशास्त्र की नींव रखने का श्रेय दिया जाता है जिसका आज भी पालन किया जाता है। संगीत शिक्षा के प्रति उनके संरचित दृष्टिकोण ने उन्हें 'कर्नाटक संगीत पितामह' (कर्नाटक संगीत के पितामह) की उपाधि दिलाई।

ग्रेडेड पाठ

पुरंदरदास ने क्रमिक पाठों की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसकी शुरुआत 'सरली वारिसाई' नामक बुनियादी अभ्यास से हुई, जिसके बाद 'जनता वारिसाई', 'अलंकार' और 'गीतम' जैसे अधिक जटिल पैटर्न शामिल किए गए। इस व्यवस्थित दृष्टिकोण ने छात्रों को राग और लय दोनों में एक मजबूत आधार बनाने में सक्षम बनाया।

रचनाएँ और कीर्तन

पुरंदरदास एक विपुल संगीतकार थे, जिन्होंने हजारों भक्ति गीतों की रचना की, जिन्हें 'कीर्तन' के नाम से जाना जाता है। ये रचनाएं मुख्य रूप से कन्नड़ में थीं और अक्सर 'पुरंदर विट्ठल' के उपनाम से लिखी जाती थीं, जो पंढरपुर के भगवान विट्ठल का संदर्भ था, जिनके प्रति वे अत्यधिक श्रद्धा रखते थे।

संगीत विरासत

उनकी रचनाएँ अपनी सादगी, काव्यात्मक सुंदरता और गहन दार्शनिक विषय-वस्तु के लिए प्रसिद्ध हैं। वे भक्ति, नैतिकता और मानवीय मूल्यों सहित कई विषयों को कवर करती हैं, जिससे वे सभी क्षेत्रों के लोगों के लिए सुलभ और प्रासंगिक बन जाती हैं।

कीर्तन के उदाहरण

पुरंदरदास के कुछ प्रसिद्ध कीर्तनों में राग कपि में "जगदोधरना", राग मध्यमावती में "भाग्यदा लक्ष्मी बारम्मा", और राग हिंडोला में "गोविंदा निन्ना नामवे चंदा" शामिल हैं। ये रचनाएँ कर्नाटक संगीत प्रदर्शन का अभिन्न अंग बनी हुई हैं और संगीतकारों और श्रोताओं दोनों को प्रिय हैं।

भावी पीढ़ियों पर प्रभाव

कर्नाटक संगीत पर पुरंदरदास का प्रभाव उनके जीवनकाल से भी आगे तक फैला हुआ है। उनकी शैक्षणिक पद्धतियों और रचनाओं ने संगीतकारों की भावी पीढ़ियों के लिए आधार तैयार किया। कई प्रमुख कर्नाटक संगीतकारों और रचनाकारों ने उनके काम से प्रेरणा ली है, जिससे परंपरा की निरंतर जीवंतता और विकास सुनिश्चित हुआ है।

संगीत विद्यालय और अभ्यासकर्ता

'दशकुटा' परंपरा, जिससे पुरंदरदास संबंधित थे, ने उनके नक्शेकदम पर चलने वाले संत-संगीतकारों के एक समुदाय को बढ़ावा दिया। कनकदास और विजया दास जैसी उल्लेखनीय हस्तियाँ इस परंपरा से उभरीं, जिन्होंने कन्नड़ भक्ति संगीत भंडार को और समृद्ध किया।

कर्नाटक संगीत समारोह

पुरंदरदास की विरासत को उनकी रचनाओं को समर्पित कई संगीत समारोहों और कार्यक्रमों के माध्यम से मनाया जाता है। कर्नाटक और तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों में आयोजित होने वाली वार्षिक पुरंदरदास आराधना संगीतकारों और उत्साही लोगों को आकर्षित करती है जो उनके योगदान को श्रद्धांजलि देने के लिए इकट्ठा होते हैं।

  • कनकदास (1509-1609 ई.): पुरंदरदास के समकालीन, कनकदास एक अन्य संत-संगीतकार थे जिनकी रचनाएँ कन्नड़ साहित्य और संगीत में प्रसिद्ध हैं।
  • विजयदास (1682-1755 ई.): हरिदास परंपरा में बाद के व्यक्ति, विजयदास ने कई कीर्तनों की रचना की और पुरंदरदास की शिक्षाओं के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • पंढरपुर, महाराष्ट्र: भगवान विट्ठल से जुड़े पंढरपुर शहर का हरिदास परंपरा की भक्ति प्रथाओं में एक विशेष स्थान है। पुरंदरदास की विट्ठल के प्रति भक्ति उनकी रचनाओं में झलकती है।
  • हम्पी, कर्नाटक: विजयनगर साम्राज्य का हिस्सा ऐतिहासिक शहर हम्पी, पुरंदरदास के समय में एक सांस्कृतिक केंद्र था, जो कला और संगीत के उत्कर्ष के लिए एक जीवंत वातावरण प्रदान करता था।
  • विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ई.): विजयनगर साम्राज्य कला का एक महत्वपूर्ण संरक्षक था, और इसकी सांस्कृतिक नीतियों ने संगीत और साहित्य के विकास को प्रोत्साहित किया। इस अवधि में हरिदास आंदोलन का विकास हुआ, जिसके प्रमुख व्यक्ति पुरंदरदास थे।

खजूर

  • 1484 ई.: पुरंदरदास का जन्म वर्ष।
  • 1564 ई.: पुरंदरदास के निधन का वर्ष। पुरंदरदास के जीवन और योगदान की जांच करके, हम कर्नाटक संगीत की समृद्ध परंपरा को आकार देने में उनकी भूमिका के लिए गहरी सराहना प्राप्त करते हैं।

संगीत के रूप और संरचना

संगीत रूपों का अवलोकन

कर्नाटक संगीत, जो अपनी जटिलता और गहराई के लिए जाना जाता है, में विभिन्न प्रकार के संगीत रूप हैं जो अलग-अलग संरचनाओं और विशेषताओं को प्रदर्शित करते हैं। ये रूप कर्नाटक रचनाओं और प्रदर्शनों के निर्माण खंड हैं, जिनमें से प्रत्येक कला रूप की गहराई को व्यक्त करने में एक अद्वितीय उद्देश्य प्रदान करता है।

वरनम

संरचना और विशेषताएं

वर्णम कर्नाटक संगीत में मौलिक रचनाएँ हैं, जो अक्सर सीखने और प्रदर्शन के लिए शुरुआती बिंदु के रूप में काम आती हैं। वे आम तौर पर दो भागों से मिलकर बने होते हैं: "पल्लवी" और "अनुपल्लवी", जिसके बाद कई "चरणम" होते हैं। वर्णम अपने जटिल मधुर और लयबद्ध पैटर्न के लिए जाने जाते हैं, जो उन्हें तकनीकी कौशल को निखारने के लिए अभ्यास के लिए आदर्श बनाते हैं।

वर्णम के प्रकार

  • ताना वरनाम्स: मुख्य रूप से राग और लय पर ध्यान केंद्रित करते हैं, आमतौर पर एक संगीत कार्यक्रम के शुरुआती चरणों में प्रदर्शन किया जाता है।
  • पद वर्णम: गीतात्मक विषय-वस्तु पर जोर देते हैं, अक्सर नृत्य प्रदर्शन में उपयोग किए जाते हैं।

उदाहरण

प्रसिद्ध वर्णम का एक उदाहरण राग भैरवी में "विरिबोनि" है, जो वर्णम रचना की सुंदरता और जटिलता को दर्शाता है।

क्रिटिस

कृतियाँ कर्नाटक संगीत का हृदय हैं, जो अपनी समृद्ध गीतात्मक सामग्री और मधुर सुंदरता के लिए जानी जाती हैं। वे आम तौर पर तीन-भाग की संरचना का पालन करते हैं: "पल्लवी," "अनुपल्लवी," और "चरणम।" कृतियाँ तात्कालिकता की अनुमति देती हैं और भक्ति में गहराई से निहित होती हैं, जिन्हें अक्सर देवताओं की स्तुति में रचा जाता है।

उल्लेखनीय संगीतकार

  • त्यागराज: कर्नाटक संगीत की त्रिमूर्ति में से एक, राग श्री में "एंडारो महानुभावुलु" जैसी कृतियों के लिए जाने जाते हैं।
  • मुथुस्वामी दीक्षितार: राग हंसध्वनि में "वातापि गणपतिम" के लिए प्रसिद्ध।
  • श्यामा शास्त्री: राग सावेरी में "संकारी संकुरु" के लिए जाने जाते हैं।

क्रिटिस की विशेषताएं

कृतियों की विशेषता रागों और तालों की खोज है, जिसमें मधुर पैटर्न (राग) और लयबद्ध चक्र (ताल) दोनों पर जोर दिया जाता है। गीतात्मक सामग्री में अक्सर दार्शनिक और भक्ति विषय शामिल होते हैं।

रागम-तनम-पल्लवी

रागम-तनम-पल्लवी कर्नाटक संगीत का एक जटिल और अत्यधिक तात्कालिक रूप है। इसमें तीन मुख्य भाग शामिल हैं:

  • रागम: चुने हुए राग का बिना लय के शुद्ध संगीतमय आशुरचना।
  • तानम: एक लयबद्ध आशुरचना जो रागम और पल्लवी वर्गों को जोड़ती है।
  • पल्लवी: एक विशिष्ट ताल पर आधारित केन्द्रीय विषय, जो व्यापक सुधार की अनुमति देता है।

प्रदर्शन में महत्व

रागम-तनम-पल्लवी में कलाकार की रचनात्मकता और राग और ताल दोनों प्रणालियों पर निपुणता प्रदर्शित होती है, जिससे यह कर्नाटक संगीत समारोहों का मुख्य आकर्षण बन जाता है।

सुधार और प्रदर्शन

सुधार की भूमिका

कर्नाटक संगीत के प्रदर्शन में इम्प्रोवाइजेशन एक प्रमुख विशेषता है, खासकर रागम-तनम-पल्लवी जैसे रूपों में। यह कलाकारों को रागों और तालों के संरचित ढांचे के भीतर मधुर और लयबद्ध संभावनाओं का पता लगाने की अनुमति देता है।

प्रदर्शन संदर्भ

कर्नाटक संगीत प्रदर्शन आमतौर पर विभिन्न प्रकार के संगीत रूपों, वर्णम और कृति से लेकर रागम-तनम-पल्लवी तक, के साथ संरचित होते हैं, जो कलाकार के कौशल और कलात्मकता का व्यापक प्रदर्शन प्रदान करते हैं।

  • त्यागराज (1767-1847 ई.): अपनी कृतियों के लिए सम्मानित, जो कर्नाटक संगीत प्रदर्शन का मुख्य अंग बन गयीं।
  • मुत्तुस्वामी दीक्षितार (1775-1835 ई.): वे अपनी रचनाओं के लिए जाने जाते हैं जिनमें जटिल संगीत पैटर्न को समृद्ध गीतात्मक सामग्री के साथ संयोजित किया गया है।
  • श्यामा शास्त्री (1762-1827 ई.): कृति के एक गुरु, जिन्होंने कर्नाटक संगीत के आध्यात्मिक और संगीतमय प्रदर्शन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • तंजावुर, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत के विकास और संरक्षण का एक ऐतिहासिक केंद्र, जिसने अनेक संगीतकारों और कलाकारों को बढ़ावा दिया।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: प्रतिष्ठित मद्रास संगीत सत्र का आयोजन, जो कर्नाटक संगीत के विविध संगीत रूपों को प्रदर्शित करने के लिए एक प्रमुख मंच है।
  • मद्रास संगीत सत्र: एक वार्षिक कार्यक्रम जो कर्नाटक संगीत की समृद्ध परंपरा का जश्न मनाता है, जिसमें प्रतिष्ठित कलाकारों द्वारा विभिन्न संगीत रूपों के प्रदर्शन शामिल हैं। इन संगीत रूपों की जटिल संरचना और विशेषताओं को समझने से, कर्नाटक संगीत की गहराई और विविधता के बारे में जानकारी मिलती है। ये रूप, गीतात्मक सामग्री, मधुर पैटर्न और लयबद्ध पेचीदगियों के अपने अनूठे मिश्रण के साथ, संगीतकारों और दर्शकों को समान रूप से प्रेरित और चुनौती देते रहते हैं।

राग और ताल प्रणालियाँ

राग प्रणाली का अवलोकन

राग प्रणाली कर्नाटक संगीत की रीढ़ की हड्डी है, जो रचनाओं और तात्कालिकता के लिए मधुर ढांचे के रूप में कार्य करती है। प्रत्येक राग स्वरों (नोटों) का एक अनूठा समूह है जिसे विशिष्ट नियमों और विशेषताओं द्वारा परिभाषित किया जाता है, जिसमें आरोहण (आरोहण स्केल) और अवरोहण (अवरोहण स्केल) शामिल हैं। राग प्रणाली को विशिष्ट भावनाओं और मनोदशाओं को जगाने के लिए डिज़ाइन किया गया है, और यह अपनी निश्चित संरचनाओं के भीतर बहुत अधिक रचनात्मकता की अनुमति देता है।

स्थिर संरचनाएं और गमका

रागों की विशेषता उनकी निश्चित संरचना होती है, जिसमें विशिष्ट स्वर अनुक्रम और वाक्यांश शामिल होते हैं जो उनकी पहचान को परिभाषित करते हैं। कर्नाटक राग प्रणाली की अनूठी विशेषताओं में से एक गमकों का उपयोग है, जो स्वरों के दोलन या अलंकरण हैं जो संगीत में गहराई और अभिव्यक्ति जोड़ते हैं। गमक राग की पहचान के अभिन्न अंग हैं और एक राग से दूसरे राग में भिन्न होते हैं, जो प्रत्येक राग की विशिष्टता में योगदान करते हैं।

लोकप्रिय रागों के उदाहरण

  • राग कल्याणी: अपनी भव्यता और शुभता के लिए जाना जाने वाला कल्याणी एक संपूर्ण राग है (जिसमें सभी सात स्वर हैं)। इसका इस्तेमाल अक्सर भक्ति और उत्सव को व्यक्त करने वाली रचनाओं में किया जाता है।
  • राग भैरवी: भैरवी एक बहुमुखी राग है जिसका इस्तेमाल भक्ति से लेकर रोमांटिक तक कई तरह की रचनाओं में किया जाता है। यह अपने सुखदायक और शांत प्रभाव के लिए जाना जाता है।
  • राग तोड़ी: तोड़ी एक चुनौतीपूर्ण राग है जो अपने जटिल गमकों के लिए जाना जाता है और अक्सर गहरी भक्ति और आत्मनिरीक्षण से जुड़ा होता है।

ताला प्रणाली का अवलोकन

ताल प्रणाली कर्नाटक संगीत का लयबद्ध ढाँचा है, जिसमें कई तरह के लयबद्ध पैटर्न या चक्र शामिल होते हैं। प्रत्येक ताल एक निश्चित संख्या में बीट्स से बना होता है, जिन्हें अंग नामक खंडों में विभाजित किया जाता है। ताल प्रणाली किसी रचना की लयबद्ध अखंडता को बनाए रखने के लिए आवश्यक है और यह कर्नाटक संगीत में राग की तरह ही महत्वपूर्ण है।

लोकप्रिय तलास

  • आदि ताल: सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले तालों में से एक, आदि ताल में आठ बीट्स होते हैं और इसे चार भागों में बांटा गया है। यह बहुमुखी है और कई तरह की रचनाओं के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • रूपक ताल: तीन तालों वाला रूपक ताल अपनी सरलता के लिए जाना जाता है और इसका प्रयोग अक्सर हल्की रचनाओं में किया जाता है।
  • मिसरा चापू: सात ताल वाला एक ताल, मिसरा चापू अपनी लयबद्ध जटिलता के लिए जाना जाता है और अक्सर तीव्र गति वाली रचनाओं में इसका प्रयोग किया जाता है।

रचनाओं में महत्व

राग और ताल प्रणालियाँ कर्नाटक संगीत में रचनाओं की संरचना और निष्पादन के लिए अभिन्न अंग हैं। संगीतकार अपनी रचनाओं की इच्छित भावना और मनोदशा को व्यक्त करने के लिए विशिष्ट राग और ताल चुनते हैं। राग से मधुर पैटर्न और ताल से लयबद्ध चक्रों का संयोजन ध्वनि की एक समृद्ध टेपेस्ट्री बनाता है जो कर्नाटक संगीत को परिभाषित करता है।

मधुर पैटर्न और लयबद्ध संरचनाएं

रागों में मधुर पैटर्न स्वरों और गमकों के संयोजन के माध्यम से विकसित होते हैं, जबकि तालों में लयबद्ध संरचनाएं बीट्स की व्यवस्था द्वारा परिभाषित होती हैं। इन तत्वों के बीच परस्पर क्रिया रचना और सुधार दोनों की अनुमति देती है, जिससे प्रत्येक प्रदर्शन अद्वितीय बन जाता है।

  • वेंकटमाखिन (17वीं शताब्दी ई.): राग प्रणाली के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वेंकटमाखिन के ग्रंथ "चतुर्दंडी प्रकाशिका" ने कर्नाटक संगीत में रागों के वर्गीकरण की नींव रखी।
  • पापनासम सिवन (1890-1973): तमिल त्यागराज के नाम से प्रसिद्ध सिवन एक विपुल संगीतकार थे, जिनकी रचनाएं राग और ताल के सिद्धांतों के पालन के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत के केंद्र के रूप में, चेन्नई में अनेक संगीत समारोह और उत्सव आयोजित होते हैं, जहां राग और ताल प्रणालियों का अन्वेषण और प्रदर्शन के माध्यम से उत्सव मनाया जाता है।
  • तिरुवैयारु, तमिलनाडु: त्यागराज का जन्मस्थान, तिरुवैयारु कर्नाटक संगीत के लिए एक महत्वपूर्ण स्थल है, जो वार्षिक त्यागराज आराधना उत्सव की मेजबानी करता है।
  • संगीत अकादमियों की स्थापना: 20वीं सदी की शुरुआत में, चेन्नई और तमिलनाडु के अन्य हिस्सों में संगीत अकादमियों की स्थापना ने औपचारिक शिक्षा और प्रदर्शन के माध्यम से राग और ताल प्रणालियों को संरक्षित करने और बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • 17वीं शताब्दी ई.: वह काल जिसमें वेंकटमाखिन ने रागों के वर्गीकरण को औपचारिक रूप दिया।
  • 1930: मद्रास संगीत अकादमी की स्थापना का वर्ष, कर्नाटक संगीत की औपचारिक शिक्षा और प्रसार में एक महत्वपूर्ण विकास को चिह्नित करता है। राग और ताल प्रणालियों की खोज करके, व्यक्ति उन जटिल और सामंजस्यपूर्ण संबंधों की गहरी समझ प्राप्त करता है जो कर्नाटक संगीत के मधुर और लयबद्ध सार को परिभाषित करते हैं।

कर्नाटक संगीत में वाद्ययंत्र

उपकरणों का अवलोकन

कर्नाटक संगीत, भारतीय शास्त्रीय संगीत का एक समृद्ध और जटिल रूप है, जो न केवल अपनी गायन रचनाओं के लिए बल्कि अपने विविध प्रकार के वाद्ययंत्रों के लिए भी जाना जाता है। ये वाद्ययंत्र गायन और वाद्य दोनों ही प्रकार के प्रदर्शनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जो समग्र संगीत अनुभव को समृद्ध करते हैं। इन्हें तार वाले, हवा वाले और ताल वाद्यों में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिनमें से प्रत्येक समूह में अद्वितीय योगदान देता है।

तारवाला बाजा

वीना

वीणा कर्नाटक संगीत में सबसे प्राचीन और पूजनीय वाद्ययंत्रों में से एक है। यह एक समृद्ध, गूंजती हुई ध्वनि वाला एक तार वाला वाद्य यंत्र है, और इसे अक्सर दक्षिण भारत में शास्त्रीय तार वाले वाद्ययंत्रों का प्रतीक माना जाता है। वीणा का शरीर नाशपाती के आकार का गुंजयमान यंत्र, लंबी गर्दन और सात तार होते हैं, जिनमें से चार का उपयोग राग बजाने के लिए और तीन का उपयोग मधुर स्वर के लिए किया जाता है।

  • भूमिका: वीणा का उपयोग मुख्य रूप से एकल प्रदर्शन में किया जाता है, लेकिन गायकों के साथ भी इसका उपयोग किया जा सकता है। यह जटिल गमक (अलंकरण) उत्पन्न करने की अपनी क्षमता के लिए जाना जाता है, जो कर्नाटक संगीत में आवश्यक है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: वीणा धनम्मल एक प्रसिद्ध वीणा वादक थीं, जो अपनी प्रतिभा और वादन शैली में योगदान के लिए जानी जाती थीं।

वायलिन

वायलिन, हालांकि पश्चिमी मूल का है, लेकिन कर्नाटक संगीत में इसका एक प्रमुख स्थान है। इसे 18वीं शताब्दी में पेश किया गया था और तब से यह भारतीय शास्त्रीय संगीत की बारीकियों के अनुकूल होने के कारण कर्नाटक संगीत मंडली का एक अभिन्न अंग बन गया है।

  • भूमिका: कर्नाटक संगीत में वायलिन का इस्तेमाल एकल वाद्य के रूप में और गायकों के लिए संगत के रूप में किया जाता है। मानव आवाज़ की नकल करने की इसकी क्षमता इसे रागों के जटिल मधुर पैटर्न को पुन: पेश करने के लिए आदर्श बनाती है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: लालगुडी जयरामन एक प्रसिद्ध वायलिन वादक थे जो अपनी नवीन तकनीकों और कर्नाटक संगीत में योगदान के लिए जाने जाते थे।
  • कार्यक्रम: मद्रास संगीत सत्र में अक्सर वायलिन संगीत कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है, जिसमें वाद्य यंत्र की बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन होता है।

हवा उपकरण

बांसुरी

कर्नाटक संगीत में बांसुरी, जो पारंपरिक रूप से बांस से बनी होती है, को वेणु के नाम से जाना जाता है। यह एक सरल लेकिन अभिव्यंजक वाद्य है जो एकल और सामूहिक दोनों ही तरह के कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

  • भूमिका: बांसुरी को उसकी मधुर और मधुर ध्वनि के लिए सराहा जाता है, जो रागों का सार पकड़ती है। इसका उपयोग एकल प्रदर्शन और गायन संगीत के साथ संगत के रूप में किया जाता है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: टी.आर. महालिंगम, जिन्हें माली के नाम से जाना जाता है, एक अग्रणी बांसुरी वादक थे, जिन्होंने कर्नाटक संगीत में बांसुरी वादन शैली में क्रांतिकारी बदलाव किया।

ताल वाद्य यंत्र

मृदंगम

मृदंगम कर्नाटक संगीत में प्राथमिक ताल वाद्य है, जो लयबद्ध भाग की रीढ़ की हड्डी के रूप में कार्य करता है। यह लकड़ी और चमड़े से बना एक दो-मुंहा ढोल है, जो अपनी गहरी और गूंजती ध्वनि के लिए जाना जाता है।

  • भूमिका: मृदंगम लयबद्ध समर्थन प्रदान करता है और राग और लय के बीच गतिशील अंतरक्रिया को बढ़ाता है। यह गायन और वाद्य दोनों ही प्रकार के प्रदर्शनों में अपरिहार्य है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: पालघाट मणि अय्यर एक प्रसिद्ध मृदंगम कलाकार थे जिनके योगदान ने इस वाद्ययंत्र बजाने की कला को महत्वपूर्ण रूप दिया।
  • कार्यक्रम: थिरुवैयारु त्यागराज आराधना उत्सव में मृदंगम का प्रदर्शन प्रमुखता से किया जाता है, जिसमें कर्नाटक संगीत में इसके महत्व का जश्न मनाया जाता है।

कंजीरा

कंजीरा एक छोटा सा फ्रेम वाला ड्रम है, जो टैम्बोरिन जैसा होता है, जिसका इस्तेमाल कर्नाटक संगीत में द्वितीयक तालवाद्य के रूप में किया जाता है। इसमें झंकार की एक जोड़ी और ध्वनि उत्पन्न करने के लिए एक फैली हुई झिल्ली होती है।

  • भूमिका: कंजीरा का उपयोग मृदंगम के पूरक के रूप में किया जाता है, जिससे प्रदर्शन में लयबद्ध जटिलता और बनावट जुड़ जाती है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: जी. हरिशंकर कंजीरा बनाने में अपने असाधारण कौशल और नवीनता के लिए प्रसिद्ध थे।

घातम

घटम मिट्टी से बना एक अनोखा ताल वाद्य है, जो एक बड़े बर्तन जैसा दिखता है। इसे हाथों और उंगलियों से बजाया जाता है और यह कई तरह की ध्वनियाँ निकालने में सक्षम है।

  • भूमिका: घटम का उपयोग कर्नाटक संगीत समूह के लयबद्ध भाग को समृद्ध करने के लिए किया जाता है, जिससे एक विशिष्ट और पार्थिव ध्वनि उत्पन्न होती है।
  • उल्लेखनीय कलाकार: विक्कु विनायकराम एक मास्टर घाटम वादक हैं जो इस वाद्य यंत्र में अपने वैश्विक योगदान के लिए जाने जाते हैं।

संगत और एकल प्रदर्शन

कर्नाटक संगीत में, वाद्य यंत्र एकल कलाकार के रूप में और गायक के साथ संगत के रूप में दोनों काम करते हैं। प्रदर्शन में वाद्य यंत्र का चयन और उसकी भूमिका अक्सर रचना और कलाकार की शैली पर निर्भर करती है। वीणा और बांसुरी जैसे वाद्य यंत्र अक्सर एकल प्रदर्शनों में शामिल किए जाते हैं, जो संगीतकार की धुन और लय पर महारत को प्रदर्शित करते हैं। इसके विपरीत, वायलिन और मृदंगम का अक्सर संगत के रूप में उपयोग किया जाता है, जो प्रदर्शन के मधुर और लयबद्ध आयामों को बढ़ाकर गायक का समर्थन करते हैं।

संगीत समूह

एक विशिष्ट कर्नाटक संगीत समूह, चाहे गायन या वाद्य संगीत कार्यक्रम के लिए हो, में एक मुख्य कलाकार होता है जो वायलिन, मृदंगम और कभी-कभी कंजीरा या घाटम जैसे अन्य ताल वाद्यों के साथ होता है। यह समूह व्यवस्था राग और लय के सामंजस्यपूर्ण मिश्रण की अनुमति देती है, जिससे एक समृद्ध और विसर्जित संगीत अनुभव बनता है।

  • वीणा धनम्मल (1867-1938): अपने उत्कृष्ट वीणा वादन और पारंपरिक संगीत शैलियों के संरक्षण में योगदान के लिए प्रसिद्ध।
  • लालगुडी जयरामन (1930-2013): प्रसिद्ध वायलिन वादक और संगीतकार, जो कर्नाटक संगीत में अपने नवाचारों के लिए जाने जाते हैं।
  • पालघाट मणि अय्यर (1912-1981): प्रसिद्ध मृदंगम कलाकार जिनकी तकनीक तालवादकों को प्रभावित करती रही।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत का केंद्र, जहां अनेक संगीत समारोह और उत्सव आयोजित होते हैं जो इस शास्त्रीय परंपरा में वाद्ययंत्रों की भूमिका पर प्रकाश डालते हैं।
  • तिरुवैयारु, तमिलनाडु: त्यागराज आराधना उत्सव के लिए जाना जाता है, जिसमें वाद्य संगीत का प्रदर्शन उत्सव का एक प्रमुख घटक होता है।
  • मद्रास संगीत सत्र: एक वार्षिक कार्यक्रम जिसमें कर्नाटक वाद्ययंत्रों की विस्तृत श्रृंखला का प्रदर्शन किया जाता है, तथा जो स्थापित और उभरते कलाकारों दोनों के लिए एक मंच प्रदान करता है।
  • त्यागराज आराधना: संत-संगीतकार त्यागराज को समर्पित एक उत्सव, जहां वाद्य संगीत उनकी विरासत का सम्मान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • 18वीं शताब्दी: वह काल जब वायलिन को कर्नाटक संगीत में शामिल किया गया, जिससे इसके वाद्य संगीत की सूची में वृद्धि हुई।
  • 1930: मद्रास संगीत अकादमी का स्थापना वर्ष, जो कर्नाटक संगीत की वाद्य परम्पराओं को बढ़ावा देने और संरक्षित करने में सहायक रहा है।

कर्नाटक संगीत के उल्लेखनीय कलाकार

कर्नाटक संगीत की परंपरा को कई कलाकारों ने समृद्ध किया है जिन्होंने इसके विकास और प्रसार में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके समर्पण और महारत ने न केवल शास्त्रीय जड़ों को संरक्षित किया है बल्कि भावी पीढ़ियों को भी प्रेरित किया है। यह अध्याय कर्नाटक संगीत की कुछ सबसे प्रसिद्ध हस्तियों, उनके योगदान और उनके द्वारा छोड़ी गई विरासत पर प्रकाश डालता है।

डॉ. एम. बालमुरलीकृष्ण

योगदान और विरासत

डॉ. एम. बालमुरलीकृष्ण एक बहुमुखी संगीतकार थे, जो गायक, संगीतकार और वाद्य वादक के रूप में उत्कृष्ट थे। उन्हें कर्नाटक संगीत में उनके अग्रणी योगदान के लिए जाना जाता है, जिसमें नए राग और रचनाएँ बनाना शामिल है, जिसने परंपरा के प्रदर्शनों की सूची का विस्तार किया।

  • नवाचार: डॉ. बालमुरलीकृष्ण ने कई नए राग पेश किए, जैसे महाति, लवंगी और गणपति, जो उनकी अभिनव भावना को प्रदर्शित करते हैं। उनकी रचनाएँ अपनी जटिल मधुर संरचनाओं और समृद्ध गीतात्मक सामग्री के लिए जानी जाती हैं।
  • प्रदर्शन: अपने मनमोहक प्रदर्शनों के लिए जाने जाने वाले डॉ. बालमुरलीकृष्ण के संगीत समारोहों में उनकी असाधारण गायन क्षमता और भावपूर्ण अभिव्यक्ति की झलक देखने को मिलती थी। मद्रास म्यूज़िक सीज़न जैसे प्रतिष्ठित कार्यक्रमों में वे एक लोकप्रिय कलाकार थे।

प्रभाव

डॉ. बालमुरलीकृष्ण का प्रभाव उनकी रचनाओं और प्रदर्शनों से कहीं आगे तक फैला हुआ है। उन्होंने संगीतकारों की एक पीढ़ी को कर्नाटक संगीत की सीमाओं के भीतर अन्वेषण और नवाचार करने के लिए प्रेरित किया, जिससे समकालीन समय में इसका निरंतर विकास और प्रासंगिकता सुनिश्चित हुई।

एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी

एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी, जिन्हें अक्सर "भारत की कोकिला" कहा जाता है, कर्नाटक संगीत की सबसे प्रतिष्ठित हस्तियों में से एक हैं। उनकी दिव्य आवाज़ और असाधारण कलात्मकता ने कर्नाटक संगीत को वैश्विक दर्शकों तक पहुँचाया, जिससे उन्हें कई प्रशंसाएँ और पहचान मिली।

  • प्रतिष्ठित प्रदर्शन: सुब्बुलक्ष्मी द्वारा प्रस्तुत "भज गोविंदम" और "विष्णु सहस्रनाम" कालजयी क्लासिक्स हैं। संयुक्त राष्ट्र और एडिनबर्ग अंतर्राष्ट्रीय महोत्सव में उनके प्रदर्शन ऐतिहासिक कार्यक्रम हैं, जिन्होंने कर्नाटक संगीत की वैश्विक अपील को प्रदर्शित किया।
  • रिकॉर्डिंग और फ़िल्में: अपनी रिकॉर्डिंग और "मीरा" जैसी फ़िल्मों में भागीदारी के ज़रिए सुब्बुलक्ष्मी ने कर्नाटक संगीत की खूबसूरती को व्यापक दर्शकों तक पहुँचाया, जिससे इसकी लोकप्रियता में काफ़ी योगदान मिला। एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी की विरासत कला के प्रति उनके समर्पण और सांस्कृतिक और भाषाई बाधाओं को पार करने की उनकी क्षमता की विशेषता है। उनका प्रभाव दुनिया भर के संगीतकारों को प्रेरित करता रहता है, जिससे कर्नाटक संगीत का सांस्कृतिक महत्व और भी मज़बूत होता है।

सेम्मनगुडी श्रीनिवास अय्यर

सेम्मनगुडी श्रीनिवास अय्यर को कर्नाटक संगीत में उनकी महारत और आधुनिक संगीत कार्यक्रम के प्रारूप को आकार देने में उनकी भूमिका के लिए सम्मानित किया जाता है। एक कलाकार, शिक्षक और संगीतज्ञ के रूप में उनके योगदान ने परंपरा पर एक अमिट छाप छोड़ी है।

  • उल्लेखनीय प्रदर्शन: अपने शक्तिशाली और भावनात्मक गायन के लिए जाने जाने वाले सेम्मनगुडी के प्रदर्शन शास्त्रीय परंपराओं के प्रति उनके समर्पण और दर्शकों को बांधे रखने की उनकी क्षमता के कारण विशिष्ट थे।
  • शैक्षणिक प्रभाव: एक शिक्षक के रूप में, उन्होंने कई प्रमुख संगीतकारों को प्रशिक्षित किया, जिससे भविष्य की पीढ़ियों तक पारंपरिक ज्ञान और तकनीकों का संचरण सुनिश्चित हुआ। सेम्मनगुडी श्रीनिवास अय्यर का प्रभाव उन अनगिनत संगीतकारों में स्पष्ट है जो उन्हें एक गुरु के रूप में मानते हैं और दर्शक जो उनकी रिकॉर्डिंग को संजोते हैं। शास्त्रीय जड़ों को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए उनकी प्रतिबद्धता कर्नाटक संगीत की अखंडता को बनाए रखने में सहायक रही है।

लालगुडी जयरामन

लालगुडी जयरामन एक महान वायलिन वादक और संगीतकार थे, जिनके आविष्कारों ने कर्नाटक संगीत परंपरा को समृद्ध किया है। अपनी गीतात्मक वादन शैली और रचना प्रतिभा के लिए जाने जाने वाले, उन्होंने कर्नाटक संगीत में वायलिन प्रदर्शन के लिए नए मानक स्थापित किए।

  • नवीन रचनाएँ: लालगुडी की रचनाएँ, जिन्हें "लालगुडी पंचरत्नम" के नाम से जाना जाता है, अपनी मधुर सुंदरता और लयबद्ध जटिलता के लिए प्रसिद्ध हैं। उनकी वर्नम और तिलनाएँ कर्नाटक संगीत के अभिन्न अंग हैं।
  • प्रदर्शन शैली: उनकी विशिष्ट वादन शैली, जो अपनी अभिव्यक्ति और तकनीकी सटीकता के लिए जानी जाती है, ने अनगिनत वायलिन वादकों को प्रेरित किया है और कर्नाटक संगीत में वायलिन की स्थिति को ऊंचा किया है। लालगुडी जयरामन का प्रभाव गहरा है, जिन्होंने कर्नाटक संगीत में वायलिन परंपराओं को आकार दिया है और संगीतकारों की एक पीढ़ी को नई कलात्मक संभावनाओं का पता लगाने के लिए प्रेरित किया है। उनकी विरासत उनके शिष्यों और रचनाओं के माध्यम से जीवित है।

टी. एन. शेषगोपालन

टी. एन. शेषगोपालन एक प्रसिद्ध गायक और वाद्यवादक हैं जो अपनी बहुमुखी प्रतिभा और संगीत के प्रति विद्वत्तापूर्ण दृष्टिकोण के लिए जाने जाते हैं। उनके व्यापक प्रदर्शनों की सूची और पारंपरिक तत्वों को नवीन विचारों के साथ सहजता से एकीकृत करने की क्षमता ने उन्हें कर्नाटक संगीत परिदृश्य में एक प्रमुख स्थान दिलाया है।

  • बहुमुखी प्रदर्शन: शेषगोपालन के संगीत कार्यक्रम अपनी विविधता के लिए जाने जाते हैं, जिसमें विभिन्न प्रकार की रचनाएँ और तात्कालिक तकनीकें शामिल होती हैं। गायन और वाद्य संगीत दोनों में उनकी विशेषज्ञता उन्हें एक बहुमुखी कलाकार के रूप में अलग करती है।
  • छात्रवृत्ति और शिक्षण: एक विद्वान के रूप में, शेषगोपालन ने कर्नाटक संगीत की अकादमिक समझ में योगदान दिया है, जबकि एक शिक्षक के रूप में उनकी भूमिका ने संगीतकारों की अगली पीढ़ी को पोषित करने में मदद की है। टी. एन. शेषगोपालन का प्रभाव परंपरा और आधुनिकता के बीच की खाई को पाटने की उनकी क्षमता में स्पष्ट है। उनका योगदान कर्नाटक संगीत के अभ्यासियों और पारखी दोनों को प्रेरित करता रहता है।
  • लालगुडी जयरामन (1930-2013): अपनी रचना और प्रदर्शन संबंधी नवीनता के लिए प्रसिद्ध, जयरामन ने वायलिन वादकों के लिए उच्च मानक स्थापित किए।
  • सेम्मनगुडी श्रीनिवास अय्यर (1908-2003): एक कलाकार और शिक्षक के रूप में उनका प्रभाव आधुनिक कर्नाटक संगीत परिदृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण रहा है।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत के एक प्रमुख केंद्र के रूप में, चेन्नई में अनेक संगीत समारोह और उत्सव आयोजित होते हैं, जहां इन कलाकारों ने प्रदर्शन किया है, जिनमें प्रसिद्ध मद्रास संगीत सत्र भी शामिल है।
  • तिरुवैयारु, तमिलनाडु: त्यागराज आराधना महोत्सव का स्थल, जहां अनेक संगीतकारों ने महान संगीतकार त्यागराज को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए प्रस्तुति दी है।
  • मद्रास संगीत सत्र: एक वार्षिक कार्यक्रम जो इन कलाकारों के लिए कर्नाटक संगीत में अपनी कलात्मकता और योगदान को प्रदर्शित करने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है।
  • एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी द्वारा संयुक्त राष्ट्र संगीत समारोह (1966): एक ऐतिहासिक प्रदर्शन जिसने कर्नाटक संगीत को वैश्विक पहचान दिलाई।
  • 1966: वह वर्ष जब एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी ने संयुक्त राष्ट्र में प्रस्तुति दी, जो कर्नाटक संगीत की अंतर्राष्ट्रीय प्रशंसा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।

पुनर्जागरण और आधुनिक विकास

सदियों से कर्नाटक संगीत के विकास को परंपरा, नवाचार और अनुकूलन के समृद्ध ताने-बाने द्वारा चिह्नित किया गया है। शास्त्रीय सिद्धांतों में निहित होने के बावजूद, कर्नाटक संगीत ने पुनर्जागरण किया है और आधुनिक विकास को देखा है जिसने इसकी विरासत को समृद्ध किया है। यह अध्याय इन गतिशील परिवर्तनों की पड़ताल करता है, यह जांचते हुए कि कैसे परंपरा ने समकालीन प्रभावों को अपनाते हुए अपनी शास्त्रीय जड़ों को बनाए रखा है।

सांस्कृतिक पुनरुत्थान और पुनर्जागरण

कर्नाटक संगीत का पुनर्जागरण सांस्कृतिक पुनरुत्थान की अवधि को संदर्भित करता है जो 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में शुरू हुई थी। इस अवधि में शास्त्रीय कलाओं में नए सिरे से रुचि देखी गई, जिसे सांस्कृतिक और राष्ट्रवादी आंदोलनों ने बढ़ावा दिया, जो भारत की पारंपरिक विरासत को संरक्षित और बढ़ावा देने की मांग करते थे।

संगीत अकादमियों की भूमिका

संगीत अकादमियों की स्थापना ने कर्नाटक संगीत के पुनर्जागरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1928 में स्थापित मद्रास संगीत अकादमी जैसी संस्थाओं ने संगीत शिक्षा को औपचारिक रूप देने और प्रदर्शन और प्रसार के लिए मंच बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

  • रुक्मिणी देवी अरुंडेल (1904-1986): सांस्कृतिक पुनरुत्थान में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व, भरतनाट्यम को बढ़ावा देने में रुक्मिणी देवी के प्रयासों ने कर्नाटक संगीत की सराहना और संरक्षण को भी प्रभावित किया।
  • पापनासम सिवन (1890-1973): तमिल त्यागराज के नाम से विख्यात, इस अवधि के दौरान सिवन की रचनाओं और प्रदर्शनों ने इस कला रूप के पुनर्जागरण में योगदान दिया।

अनुकूलन और नवाचार

जैसे-जैसे कर्नाटक संगीत विकसित हुआ, इसने बदलते समय के साथ खुद को ढाला और अपने शास्त्रीय ढांचे के भीतर नवाचार किया। अनुकूलन की इस प्रक्रिया ने परंपरा की प्रासंगिकता और समकालीन दर्शकों के लिए आकर्षण सुनिश्चित किया।

संलयन और सहयोग

कर्नाटक संगीत में आधुनिक विकास ने अन्य संगीत शैलियों और परंपराओं के साथ सहयोग देखा है। फ़्यूज़न संगीत, जो कर्नाटक तत्वों को पश्चिमी या अन्य भारतीय शास्त्रीय रूपों के साथ मिश्रित करता है, ने लोकप्रियता हासिल की है।

  • शक्ति: 1970 के दशक में जॉन मैकलॉघलिन द्वारा गठित एक फ्यूजन बैंड, जिसमें एल. शंकर और जाकिर हुसैन जैसे संगीतकार शामिल थे, तथा जिसमें कर्नाटक और पश्चिमी जैज तत्वों का मिश्रण था।
  • रघु दीक्षित: एक समकालीन संगीतकार जो कर्नाटक संगीत को लोक और रॉक संगीत के साथ मिश्रित करने के लिए जाने जाते हैं।

प्रौद्योगिकी प्रगति

प्रौद्योगिकी के आगमन ने कर्नाटक संगीत के प्रसार और उपभोग को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है। रिकॉर्डिंग प्रौद्योगिकी, डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म और सोशल मीडिया ने इसकी पहुँच और पहुँच का विस्तार किया है।

प्रभावशाली घटनाएँ

  • ऑल इंडिया रेडियो का शुभारंभ (1930): इस मंच ने कर्नाटक संगीत के प्रसारण के लिए एक नया माध्यम प्रदान किया, जो देश भर के दर्शकों तक पहुंचा।
  • डिजिटल प्लेटफॉर्म: वेबसाइटों और यूट्यूब जैसी स्ट्रीमिंग सेवाओं ने कर्नाटक प्रदर्शनों और शैक्षिक सामग्री तक वैश्विक पहुंच को सक्षम किया है।

शास्त्रीय जड़ों का संरक्षण

इन आधुनिक विकासों के बावजूद, शास्त्रीय जड़ों का संरक्षण कर्नाटक संगीत की आधारशिला बना हुआ है। परंपरा की शुद्धता को बनाए रखने के प्रयास शिक्षण और प्रदर्शन दोनों में स्पष्ट हैं।

पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली

पारंपरिक गुरुकुल प्रणाली, जहाँ छात्र अपने गुरुओं के साथ रहते हैं और उनसे सीखते हैं, कर्नाटक संगीत शिक्षा का एक महत्वपूर्ण पहलू है। यह प्रणाली एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ज्ञान और मूल्यों के हस्तांतरण को सुनिश्चित करती है।

त्यौहार और प्रतियोगिताएं

कर्नाटक संगीत की शास्त्रीय जड़ों को बचाए रखने में त्यौहार और प्रतियोगिताएं महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। वे युवा संगीतकारों को अपनी प्रतिभा दिखाने और स्थापित कलाकारों से सीखने के लिए मंच प्रदान करते हैं।

उल्लेखनीय त्यौहार

  • मद्रास संगीत सत्र: चेन्नई में एक वार्षिक कार्यक्रम जो पारंपरिक कर्नाटक संगीत का जश्न मनाता है, तथा दुनिया भर से कलाकारों और दर्शकों को आकर्षित करता है।
  • त्यागराज आराधना: संत-संगीतकार त्यागराज को समर्पित एक उत्सव, जिसमें शास्त्रीय प्रदर्शन और प्रदर्शन शैलियों पर जोर दिया जाता है।

समकालीन प्रभाव और विकास

समकालीन प्रभावों ने कर्नाटक संगीत के विकास को बढ़ावा दिया है, जिससे नए विषय, रचनाएँ और प्रदर्शन अभ्यास सामने आए हैं। यह विकास परंपरा की गतिशील प्रकृति को दर्शाता है, जो निरंतर विकसित और अनुकूलित होती रहती है।

नई रचनाएँ और विषय-वस्तु

आधुनिक संगीतकारों ने नए विषय और रचनाएं प्रस्तुत की हैं जो समकालीन श्रोताओं के साथ प्रतिध्वनित होती हैं, तथा अक्सर सामाजिक और सांस्कृतिक मुद्दों को संबोधित करती हैं।

  • इलैयाराजा: एक संगीतकार जो फिल्म संगीत में कर्नाटक तत्वों को एकीकृत करने तथा शास्त्रीय और लोकप्रिय शैलियों के बीच एक सेतु बनाने के लिए जाने जाते हैं।

वैश्विक पहुंच और प्रभाव

कर्नाटक संगीत की वैश्विक पहुंच का विस्तार हुआ है, कलाकार दुनिया भर में प्रदर्शन और शिक्षा दे रहे हैं। इस अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति ने अंतर-सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा दिया है और परंपरा के विकास को प्रभावित किया है।

प्रमुख घटनाएँ

  • एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी के संगीत कार्यक्रम: संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय स्थानों पर उनके प्रदर्शन ने कर्नाटक संगीत को वैश्विक मंच पर प्रदर्शित किया।
  • रुक्मिणी देवी अरुंडेल (1904-1986): सांस्कृतिक पुनरुत्थान में उनके प्रयासों का कर्नाटक संगीत की सराहना पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा।
  • एल. शंकर: एक वायलिन वादक जो फ्यूजन बैंड शक्ति के साथ अपने काम के लिए जाने जाते हैं।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत का केंद्र, मद्रास संगीत सत्र और अनेक संगीत समारोहों और कार्यक्रमों का आयोजन करता है।
  • तिरुवैयारु, तमिलनाडु: त्यागराज आराधना उत्सव का स्थल, जो कर्नाटक संगीत कैलेंडर का एक प्रमुख कार्यक्रम है।
  • मद्रास संगीत अकादमी की स्थापना (1928): कर्नाटक संगीत शिक्षा और प्रदर्शन के औपचारिकीकरण और प्रचार में एक महत्वपूर्ण क्षण।
  • ऑल इंडिया रेडियो का शुभारंभ (1930): पूरे भारत में कर्नाटक संगीत की पहुंच का विस्तार हुआ।
  • 1928: मद्रास संगीत अकादमी का स्थापना वर्ष, जो कर्नाटक संगीत के प्रचार-प्रसार में एक महत्वपूर्ण घटना थी।
  • 1930: ऑल इंडिया रेडियो की शुरुआत हुई, जिसने कर्नाटक संगीत के प्रसारण के लिए एक नया माध्यम उपलब्ध कराया।

हिंदुस्तानी संगीत के साथ तुलना

दो संगीत परंपराओं का अवलोकन

कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो मुख्य शाखाएँ हैं, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अलग-अलग विशेषताएँ, उत्पत्ति, संरचनाएँ और प्रदर्शन शैलियाँ हैं। कर्नाटक संगीत मुख्य रूप से भारत के दक्षिणी भाग से जुड़ा हुआ है, जबकि हिंदुस्तानी संगीत उत्तरी क्षेत्रों में प्रचलित है। अपने मतभेदों के बावजूद, दोनों परंपराएँ एक समान सांस्कृतिक विरासत साझा करती हैं और उनमें कई समानताएँ हैं जो प्राचीन भारतीय संगीत प्रथाओं में उनकी साझा जड़ों को उजागर करती हैं।

उत्पत्ति और विकास

ऐतिहासिक संदर्भ

कर्नाटक संगीत की जड़ें प्राचीन हिंदू परंपराओं में हैं, जो 14वीं से 16वीं शताब्दी के दौरान विजयनगर साम्राज्य के दौरान महत्वपूर्ण रूप से विकसित हुई। यह धार्मिक और आध्यात्मिक प्रथाओं से निकटता से जुड़ा हुआ है, जिसमें भक्ति विषयों पर अधिक जोर दिया गया है। दूसरी ओर, हिंदुस्तानी संगीत भारत के उत्तरी क्षेत्रों में विकसित हुआ, जो ऐतिहासिक आक्रमणों और सांस्कृतिक आदान-प्रदान के कारण फ़ारसी और इस्लामी संगीत परंपराओं से प्रभावित था। 16वीं शताब्दी में मुगल साम्राज्य की स्थापना ने इसके विकास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

सांस्कृतिक प्रभाव

कर्नाटक संगीत तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम साहित्य से प्रेरित होकर दक्षिण भारत की सांस्कृतिक और भाषाई विविधता से गहराई से जुड़ा हुआ है। इसे अक्सर धार्मिक समारोहों और त्योहारों के दौरान बजाया जाता है, जो इसके भक्ति पहलू पर जोर देता है। हिंदुस्तानी संगीत में फ़ारसी, अफ़गान और मध्य एशियाई परंपराओं के तत्व शामिल हैं, जिसके परिणामस्वरूप शैलियों का एक अनूठा मिश्रण होता है। इसमें ख़याल, ध्रुपद, ठुमरी और ग़ज़ल जैसे कई रूप शामिल हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक प्रभावों को दर्शाते हैं।

संरचनात्मक अंतर

राग प्रणाली

कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत दोनों ही अपनी मधुर संरचना के आधार के रूप में रागों पर निर्भर करते हैं। हालाँकि, रागों के प्रति दोनों परंपराओं के दृष्टिकोण में काफ़ी अंतर है।

  • कर्नाटक राग: कर्नाटक संगीत में राग प्रणाली अधिक संरचित और जटिल है, जिसमें रागों की एक विशाल श्रृंखला को 72 मेलकार्टा (मूल) रागों में वर्गीकृत किया गया है। प्रत्येक राग में एक विशिष्ट आरोहण (आरोही पैमाना) और अवरोहण (अवरोही पैमाना) होता है, साथ ही स्पष्ट रूप से परिभाषित गमक (अलंकरण) भी होते हैं।
  • हिंदुस्तानी राग: हिंदुस्तानी राग ज़्यादा लचीले होते हैं, जिनमें सुधार और मूड पर ज़ोर दिया जाता है। वे अक्सर दिन या मौसम के विशिष्ट समय से जुड़े होते हैं, और प्रदर्शन राग के भावनात्मक सार की खोज पर केंद्रित होता है।

ताला प्रणाली

ताल प्रणाली या लयबद्ध ढांचा भी दोनों परम्पराओं में भिन्न है।

  • कर्नाटक ताल: कर्नाटक संगीत में कई तरह के ताल होते हैं, जिनमें से प्रत्येक में विशिष्ट बीट चक्र और उपविभाजन होते हैं। लोकप्रिय तालों में आदि, रूपक और मिसरा चापू शामिल हैं। कर्नाटक संगीत में लयबद्ध जटिलता और सटीकता के लिए जटिल गणितीय गणनाओं की आवश्यकता होती है और ये रचनाओं और प्रदर्शनों का अभिन्न अंग हैं।
  • हिंदुस्तानी ताल: हिंदुस्तानी संगीत में एक सरल ताल प्रणाली का उपयोग किया जाता है, जिसमें तीनताल, झूमरा और रूपक जैसे सामान्य रूप से इस्तेमाल किए जाने वाले ताल शामिल हैं। प्रदर्शन के प्रवाह और मनोदशा पर जोर दिया जाता है, जिससे लयबद्ध ढांचे के भीतर अधिक सुधार की अनुमति मिलती है।

प्रदर्शन शैलियाँ

गायन और वाद्य संगीत पर ध्यान

कर्नाटक संगीत मुख्य रूप से गायन-केंद्रित है, जिसमें रचनाएँ अक्सर गायन प्रदर्शन के लिए लिखी जाती हैं। वाद्ययंत्रों पर बजाए जाने पर भी, रचनाएँ अपना गायन सार बनाए रखती हैं, जो गीतात्मक सामग्री के महत्व को उजागर करती हैं। हिंदुस्तानी संगीत गायन और वाद्य दोनों रूपों पर समान जोर देता है। वाद्य संगीत, जिसमें सितार, सरोद और तबला शामिल हैं, हिंदुस्तानी प्रदर्शनों का एक महत्वपूर्ण पहलू है, जो अभिव्यंजक सुधार और रागों की खोज की अनुमति देता है।

सुधार और संरचना

  • कर्नाटक संगीत: हालांकि इसमें सुधार मौजूद है, लेकिन यह आमतौर पर रचना के संरचित ढांचे के भीतर ही सीमित रहता है। रागम-तनम-पल्लवी जैसे रूप व्यापक सुधार की अनुमति देते हैं, लेकिन वे एक पूर्व निर्धारित संरचना का पालन करते हैं।
  • हिंदुस्तानी संगीत: इम्प्रोवाइजेशन हिंदुस्तानी संगीत की एक खासियत है, जिसमें कलाकार अक्सर रागों की लंबी, खोजपूर्ण प्रस्तुतियों में शामिल होते हैं। अलाप (धीमी, बिना माप वाली प्रस्तुति) और जोर/झाला (लयबद्ध खंड) रचनात्मक अन्वेषण के लिए पर्याप्त जगह प्रदान करते हैं।

समानताएं और साझा विरासत

अपने मतभेदों के बावजूद, कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत में कई समानताएं हैं, जो उनके सामान्य मूल में निहित हैं।

  • दोनों परंपराएं ज्ञान और कौशल के हस्तांतरण में गुरु-शिष्य संबंधों के महत्व पर जोर देती हैं।
  • आधारभूत तत्वों के रूप में रागों और तालों का उपयोग साझा सैद्धांतिक ढांचे को रेखांकित करता है।
  • दोनों परंपराएं आध्यात्मिकता और भक्ति से गहराई से जुड़ी हुई हैं, और अक्सर धार्मिक संदर्भों में निभाई जाती हैं।
  • त्यागराज (1767-1847 ई.): कर्नाटक संगीत में एक अग्रणी व्यक्ति, जो अपनी भक्ति रचनाओं और संगीत में योगदान के लिए जाने जाते थे।
  • मियां तानसेन (1506-1589 ई.): हिंदुस्तानी संगीत के एक प्रसिद्ध संगीतकार, जिन्होंने सम्राट अकबर के दरबार में सेवा की और इसके विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • चेन्नई, तमिलनाडु: कर्नाटक संगीत का एक प्रमुख केंद्र, जहां वार्षिक मद्रास संगीत सत्र का आयोजन होता है, जो दुनिया भर से संगीतकारों और दर्शकों को आकर्षित करता है।
  • कोलकाता, पश्चिम बंगाल: हिंदुस्तानी संगीत की समृद्ध परंपरा के लिए जाना जाता है, जहां इस कला का जश्न मनाने वाले कई संगीत समारोह और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं।
  • विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ई.): कर्नाटक संगीत के संरक्षण और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • मुगल साम्राज्य (1526-1857 ई.): इसने हिंदुस्तानी संगीत के विकास को प्रभावित किया तथा फारसी और मध्य एशियाई तत्वों को एकीकृत किया।
  • 1767–1847: त्यागराज का जीवनकाल, जिनकी रचनाओं ने कर्नाटक संगीत को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।
  • 1526-1857: मुगल साम्राज्य का काल, जिसने हिंदुस्तानी संगीत के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।